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________________ 172] [ ज्ञाताधर्मकथा 'सुदंसणा ! से जहानामए केइ पुरिसे एगं महं रुहिरकयं वत्थं सज्जियाखारेणं अणुलिया, अलिपित्ता पमणं आरुहेइ, आरुहित्ता उण्हं गाहेइ, गाहित्ता तओ पच्छा सुद्धेणं वारिणा धोवेज्जा से णूणं सुदंसणा! तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स सज्जियाखारेणं अणुलित्तस्स पयणं आरुहियस्स उण्हं गाहियस्स सुद्धणं वारिणा पक्खालिज्जमाणस्स सोही भवइ ? 'हंता भवइ / ' एवामेव सुदंसणा ! अम्हं पि पाणाइवायवेरमणेणं जाव मिच्छादसणसल्लवेरमणेण अस्थि सोही, जहा वि तस्स रुहिरकयस्म वत्थस्स जाव सुद्धेणं वारिणा पक्खालिज्जमाणस्स अस्थि सोही / इसी प्रकार हे सुदर्शन ! तुम्हारे मतानुसार भी प्राणातिपात से यावत् मिथ्यादर्शनशल्य से शुद्धि नहीं हो सकती, जैसे उस रुधिरलिप्त और रुधिर से ही धोये जाने वाले वस्त्र की शुद्धि नहीं होती। हे सुदर्शन ! जैसे यथानामक (कुछ भी नाम वाला) कोई पुरुष एक बड़े रुधिरलिप्त वस्त्र को सज्जी के खार के पानी में भिगोवे, फिर पाकस्थान (चल्हे) पर चढ़ावे, चढ़ाकर उष्णता ग्रहण करावे (उबाले) और फिर स्वच्छ जल से धोवे, तो निश्चय हे सुदर्शन ! वह रुधिर से लिप्त वस्त्र, सज्जीखार के पानी में भीग कर चूल्हे पर चढ़कर, उबलकर और शुद्ध जल से प्रक्षालित होकर शुद्ध हो जाता है ?' (सुदर्शन कहता है-) 'हाँ, हो जाता है।' इसी प्रकार हे सुदर्शन ! हमारे धर्म के अनुसार भी प्राणातिपात के विरमण से यावत् मिथ्यादर्शनशल्य के विरमण से शुद्धि होती है, जैसे उस रुधिरलिप्त वस्त्र की यावत् शुद्ध जल से धोये जाने पर शुद्धि होती है / ३९---तत्थ णं सुदंसणे संबुद्ध थावच्चापुत्तं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी'इच्छामि णं भंते ! धम्म सोच्चा जाणित्तए, जाव समणोवासए जाए अहिगयजीवाजीवे जाव पडिलाभेमाणे विहरइ / तत्पश्चात् सुदर्शन को प्रतिबोध प्राप्त हुआ। उसने थावच्चापुत्र को वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार कहा--'भगवन् ! मैं धर्म सुनकर उसे जानना अर्थात् अंगीकार करना चाहता हूँ।' यावत् (थावच्चापुत्र अनगार ने धर्म का उपदेश किया) वह धर्मोपदेश श्रवण करके श्रमणोपासक हो गया, जीवाजीव का ज्ञाता हो गया, यावत् निर्ग्रन्थ श्रमणों को प्राहार आदि का दान करता हुआ विचरने लगा। शुक का पुनरागमन ४०---तए णं तस्स सुयस्स परिवायगस्स इमोसे कहाए लद्धट्ठस्स समाणस्स अयमेयारूवे जाव [अज्झस्थिए चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे] समुप्पज्जित्था-एवं खलु सुदंसणेणं सोयधम्म विप्पजहाय विणयमूले धम्मे पडिवन्ने / तं सेयं खलु मम सुदंसणस्स दिठ्ठि वामेत्तए, पुणरवि सोयमूलए धम्मे आघवित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता परिव्वायगसहस्सेणं सद्धि जेणेव सोगंधिया नयरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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