________________ 568 ] [ ज्ञाताधर्मकथा १-जैसे यहाँ कालिक द्वीप कहा है, वैसे अनुपम सुख प्रदान वाला श्रमणधर्म समझना चाहिए / अश्वों के समान साधु और वणिकों के समान अनुकूल उपसर्ग करने वाले (ललचाने वाले) लोग हैं। २-~-जैसे शब्द आदि विषयों में आसक्त न होने वाले अश्व जाल में नहीं फंसे, उसी प्रकार जो साधु इन्द्रियविषयों में आसक्त नहीं होते वे साधु कर्मों से बद्ध नहीं होते / ३-जैसे अश्वों का स्वच्छंद विहार कहा, उसी प्रकार श्रेष्ठ मुनिजनों का जरा-मरण से रहित और आनन्दमय निर्वाण समझना। तात्पर्य यह है कि शब्दादि विषयों से विरत रहने वाले अश्व जैसे स्वाधीन-इच्छानुसार विचरण करने में समर्थ हुए, वैसे ही विषयों से विरत महामुनि मुक्ति प्राप्त करने में समर्थ होते हैं / ४--इससे विपरीत शब्दादि विषयों में अनुरक्त हुए अश्व जैसे बन्धन-बद्ध हुए, उसी प्रकार जो विषयों में अनुरागवान् हैं, वे प्राणी अत्यन्त दु:ख के कारणभूत एवं घोर कर्मबन्धन को प्राप्त करते हैं। ५--जैसे शब्दादि में प्रासक्त हुए अश्व अन्यत्र ले जाए गए और दुःख-समूह को प्राप्त हुए, उसी प्रकार धर्म से भ्रष्ट जीव अधर्म को प्राप्त होकर दुःखों को प्राप्त होते हैं। ६-ऐसे प्राणी कर्म रूपी राजा के वशीभूत होते हैं / वे सवारी जैसे सांसारिक दुःखों के, अश्वमर्दकों द्वारा होने वाली पीडा के समान (परभव में) नारकों द्वारा दिये जाने वाले कष्टों के पात्र बनते हैं। अठारहवां अध्ययन १-जह सो चिलाइपुत्तो, सुसुमगिद्धो अकज्जपडिबद्धो। धण-पारद्धो पत्तो, महावि वसणसय-कलिअं॥ २--तह जीवो बिसयसुहे, लुद्धो काऊण पावकिरियाओ। कम्मवसेणं पावइ, भवाडवीए महादुक्खं // ३---धणसेट्ठी विव गुरुणो, पुत्ता इव साहबो भवो अडवी। सुय-मांसमिवाहारो, रायगिहं इह सिवं नेयं / ४-जह अडवि-नयर नित्थरण-पावणत्थं तएहि सुयमंसं / भत्तं तहेह साहू, गुरूण आणाए आहारं // ५-भवलंघण-सिवपावण-हेउं भुजंति न उण गेहीए। वण्ण-बल-रूवहे, च भावियप्पा महासत्ता / / १-जैसे चिलातीपुत्र सुसुमा पर आसक्त होकर कुकर्म करने पर उतारू हो गया और धन्य श्रेष्ठी के पीछा करने पर सैकड़ों संकटों से व्याप्त महा-अटवी को प्राप्त हुआ। २-उसी प्रकार जीव विषय-सुखों में लुब्ध होकर पापक्रियाएँ करता है / पापक्रियाएँ करके कर्म के वशीभूत होकर इस संसार रूपी अटवी में घोर दुःख पाता है / ३–यहाँ धन्य श्रेष्ठी के समान गुरु हैं, उसके पुत्रों के समान साधु हैं और अटवी के समान संसार है / सुता (पुत्री) के मांस के समान आहार है और राजगृह के समान मोक्ष है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org