________________ 302 ] [ ज्ञाताधर्मकथा जिनपालित यदि रोती, प्राक्रन्दन करती, शोक करती, अनुताप करती और विलाप करती हुई मेरी परवाह नहीं करता, तो हे जिनरक्षित ! तुम भी मुझ रोती हुई की यावत् परवाह नहीं करते ?' ४८-तए णं सा पवररयणदीवस्स देवया ओहिणा उ जिनरक्खियस्स मणं / नाऊण बनिमित्तं उवरि मार्गदियदारयाणं दोण्हं पि // 1 // तत्पश्चात्---उत्तम रत्नद्वीप की वह देवी अवधिज्ञान द्वारा जिनरक्षित का मन जानकर, दोनों माकंदीपुत्रों के प्रति, उनका वध करने के निमित्त (कपट से इस प्रकार बोली / ) ४९-दोसकलिया सलीलयं, णाणाविहचुण्णवासमीसियं दिव्वं / घाणमणणिन्वुइकरं सयोउयसुरभिकुसुमबुद्धि पमुचमाणी // 2 // द्वेष से युक्त वह देवी लीला सहित, विविध प्रकार के चर्णवास से मिश्रित, दिव्य, नासिका और मन को तृप्ति देने वाले और सर्व ऋतुओं सम्बन्धी सुगंधित फूलों की वृष्टि करती हुई (बोली) // 2 // ५०–णाणामणि-कणग-रयण-घंटिय-खिखिणि-णेउर-मेहल-भूसणरवेणं / दिसाओ विदिसाओ पूरयंती वयणमिणं बेति सा सकलुसा // 3 // नाना प्रकार के मणि, सुवर्ण और रत्नों की घंटियों, घुघरुओं, नपुरों और मेखला-इन सब प्राभूषणों के शब्दों से समस्त दिशाओं और विदिशाओं को व्याप्त करती हुई, वह पापिनी देवी इस प्रकार कहने लगी 113 // ५१-होल वसुल गोल णाह दइत, पिय रमण कंत सामिय णिग्घण णित्थक्क / छिण्ण निक्किव अकयण्णुय सिढिलभाव निल्लज्ज लुक्ख, अकलुण जिणरक्खिय ! मज्झं हिययरक्खगा // 4 // हे हील! वसुल, गोल' हे नाथ ! हे दयित ( प्यारे ! ) हे प्रिय ! हे रमण ! हे कान्त (मनोहर) ! हे स्वामिन् (अधिपति) ! हे निघुण ! (मुझ स्नेहवती का त्याग करने के कारण निर्दय ! हे नित्थक्क (अकस्मात् मेरा परित्याग करने के कारण अवसर को न जानने वाले) ! हे स्त्यान (मेरे हादिक राग से भी तेरा हृदय पार्द्र न हुआ, अतएव कठोर हृदय)! हे निष्कृप (दयाहीन) ! हे अकृतज्ञ ! शिथिल भाव (अकस्मात् मेरा त्याग कर देने के कारण ढीले मन वाले) ! हे निर्लज्ज (मुझे स्वीकार करके त्याग देने के कारण लज्जाहीन)! हे रूक्ष (स्नेहहीन हृदय वाले) ! हे करुण ! जिनरक्षित ! हे मेरे हृदय के रक्षक (वियोग व्यथा से फटते हुए हृदय को फिर अंगीकार करके बचाने वाले) !' // 4 // 1. इन तीन शब्दों का निन्दा-स्तुति गभित अर्थ होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org