________________ 208 [ ज्ञाताधर्मकथा पंच सालिअक्खए सगडसागडिएणं निज्जाइए। तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह ने रोहिणी को बहुत-से छकड़ा-छकड़ी दिये। रोहिणी उन छकड़ाछकड़ियों को लेकर जहाँ अपना कुलगृह (मैका) था, वहाँ पाई / आकर कोठार खोला / कोठार खोल कर पल्य उघाड़े, उघाड़ कर छकड़ा-छकड़ी भरे / भरकर राजगृह नगर के मध्य भाग में होकर जहाँ अपना घर (ससुराल) था और जहाँ धन्य सार्थवाह था, वहाँ ग्रा पहुँची। तब राजगृह नगर में शृगाटक (चौक, चत्वर, चतुर्मुख, महापथ) आदि मार्गों में बहुत से लोग आपस में इस प्रकार कह कर प्रशंसा करने लगे—'देवानुप्रियो ! धन्य सार्थवाह धन्य है, जिसकी पुत्रवधू रोहिणी है, जिसने पांच शालि के दाने छकड़ा-छकड़ियों में भर कर लौटाये / ' ३०-तए णं से धण्णे सत्यवाहे ते पंच सालिअक्खए सगडसागडेणं निज्जाइए पासइ, पासित्ता हतुठे पडिच्छइ / पडिच्छित्ता तस्सेव मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणस्स चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ रोहिणीयं सुण्हं तस्स कुलघरवग्गस्स बहुसु कज्जेसु य जाव [कारणेसु य कुडुबेसु य मंतेसु य गुज्झेसु य ] रहस्सेसु य आपुच्छणिज्जं जाव' वड्डावियं पमाणभूयं ठावेइ / तत्पचात् धन्य सार्थवाह उन पांच शालि के दानों को छकड़ा-छकड़ियों द्वारा लौटाये देखता है / देखकर हृष्ट और तुष्ट होकर उन्हें स्वीकार करता है। स्वीकार करके उसने उन्हीं मित्रों एवं ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजनों, संबंधीजनों तथा परिजनों के सामने तथा चारों पुत्रवधुओं के कुलगृहवर्ग के समक्ष रोहिणी पुत्रवधू को उस कुलगृहवर्ग (परिवार) के अनेक कार्यों में यावत् रहस्यों में पूछने योग्य यावत् गृह का कार्य चलाने वाली और प्रमाणभूत (सर्वेसर्वा) नियुक्त किया। ३१-एवामेव समणाउसो ! जाव पंच महन्वया संवड्डिया भवंति, से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं जाव वीईवइस्सइ जहा व सा रोहिणीया। इसी प्रकार हे यायुष्मन् श्रमणो ! जो साधु-साध्वी प्राचार्य या उपाध्याय के निकट दीक्षित होकर, अनगार बन कर अपने पांच महाव्रतों में वृद्धि करते हैं---उन्हें उत्तरोत्तर अधिक निर्मल बनाते हैं, वे इसी भव में बहुत से श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों और श्राविकाओं के पूज्य होकर यावत् संसार से मुक्त हो जाते हैं जैसे वह रोहिणी बहुजनों की प्रशंसापात्र बनी। उपसंहार ३२–एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं सत्तमस्स नायज्झयणस्स अयमठे पन्नत्ते त्ति बेमि। हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने सातवें ज्ञाताध्ययन का यह अर्थ कहा है ! वही मैंने तुमसे कहा है। 11 सप्तम अध्ययन समाप्त / / 1. सप्त म प्र.४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org