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________________ चतुर्थ अध्ययन : कूर्म ] [ 151 दंतेहि कवालं विहाडेंति, विहाडित्ता तं कुम्मगं जीवियाओ ववरोति, ववरोवित्ता मंसं च सोणियं च आहारेति / उन दोनों कछुओं में से एक कछुए ने उन पापी सियारों को बहुत समय पहले और दूर गया जान कर धीरे-धीरे अपना एक पैर बाहर निकाला। तत्पश्चात् उन पापी सियारों ने देखा कि उस कछा ने धीरे-धीरे एक पैर निकाला है / यह देखकर वे दोनों उत्कृष्ट गति से शीघ्र, चपल, त्वरित, चंड, जययुक्त और वेगयुक्त रूप से जहाँ वह कछुआ था, वहाँ गये / जाकर उन्होंने कछुए का वह पैर नाखूनों से विदारण किया और दातों से तोड़ा / तत्पश्चात् उसके मांस और रक्त का आहार किया। प्राहार करके वे कछुए को उलट-पुलट कर देखने लगे, किन्तु यावत् उसकी चमड़ी छेदने में समर्थ न हुए। तब वे दूसरी बार हट गए--दूर चले गए / इसी प्रकार चारों पैरों के विषय में कहना चाहिए / तात्पर्य यह है कि शृगालों के दूसरी बार चले जाने पर कछुए ने दूसरा पैर वाहर निकाला। पास ही छिपे शृगालों ने यह देखा तो वे पुनः झपट कर पा गए और कछुया का दूसरा पैर खा गए / शेष दो पैर और ग्रीवा शरीर में छिपी होने से उनका कुछ भी न बिगाड़ सके / तब निराश होकर शृगाल फिर एक अोर चले गए और छिप गए / जब कुछ देर हो गई तो कछुए ने अपना तीसरा पैर बाहर निकाला। शृगालों ने यह देखकर फिर अाक्रमण कर दिया और वह तीसरा पैर भी खा लिया। एक पैर और ग्रीवा फिर भी बची रही। शृगाल उसे न फाड़ सके / तब वे फिर एकान्त में जाकर छिप गये। तत्पश्चात् कछुए ने चोथा पैर बाहर निकाला और तभी शृगालों ने हमला बोल कर वह चौथा पैर भी खा लिया / इसी प्रकार कुछ समय व्यतीत होने पर उस कछए ने ग्रीवा बाहर निकाली। उन प देखा कि कछुए ने ग्रीवा बाहर निकाली है। यह देख कर वे शीघ्र ही उसके समीप अाए / उन्होंने नाखूनों से विदारण करके और दाँतों से तोड़ कर उसके कपाल को अलग कर दिया। अलग करके कछुए को जीवन-रहित कर दिया / जीवन-रहित करके उसके मांस और रुधिर का पाहार किया। निष्कर्ष १०--एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा पायरियउवज्झायाणं अंतिए पव्वइए समाणे पंच य से इंदियाई अगुत्ताइं भवंति, से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं सावगाणं साविगाणं हीलणिज्जे, परलोए वि य णं आगच्छइ बहूणि दंडणाणि जाव' अणुपरियट्टइ, जहा कुम्मए अगुतिदिए। इसी प्रकार हे आयुष्मन श्रमणो ! हमारे जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी प्राचार्य या उपाध्याय के निकट दीक्षित होकर पाँचों इन्द्रियों का गोपन नहीं करते हैं, वे इसी भव में बहुत साधुओं, साध्वियों, थावकों, थाविकानों द्वारा हीलता करने योग्य होते हैं और परलोक में भी बहुत दंड पाते हैं, यावत् अनन्त संसार में परिभ्रमण करते हैं, जैसे अपनी इन्द्रियों-अंगों का गोपन न करने वाला वह कछुअा मृत्यु को प्राप्त हुआ / 1. तृ. प्र., 20 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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