________________ 300 ] [ ज्ञाताधर्मकथा तब माकन्दोपुत्रों ने हर्षित और सन्तुष्ट होकर शैलक यक्ष को प्रणाम किया। प्रणाम करके वे शैलक की पीठ पर आरूढ हो गये। तत्पश्चात् अश्वरूपधारी शैलक यक्ष माकन्दीपुत्रों को पीठ पर आरूढ हुआ जान कर सातआठ ताड़ के बराबर ऊँचा आकाश में उड़ा / उड़कर उत्कृष्ट, शीघ्रता वाली देव संबंधी दिव्य गति से लवणसमुद्र के बीचोंबीच होकर जिधर जम्बूद्वीप था, भरतक्षेत्र था और जिधर चम्पानगरी थी, उसी ओर रवाना हो गया / ४३-तए णं सा रयणद्दीवदेवया लवणसमुई तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टइ, जं जत्थ तणं वा जाव एडइ, एडित्ता जेणेव पासायव.सए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ते मागंदियदारया पासायवडेंसए अपासमाणो जेणेव पुरच्छिमिल्ले वणसंडे जाव सम्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ, करित्ता तेसि मागंदियदारगाणं कत्थइ सुई वा (खुहं वा पत्ति वा) अलभमाणी जेणेव उत्तरिल्ले वणसंडे, एवं चेव पच्चस्थिमिल्ले वि जाव अपासमाणी ओहिं पउंजइ, पउंजित्ता ते मागंदियदारए सेलएणं सद्धि लवणसमुई मज्झंमज्झेणं वीइवयमाणे वीइवयमाणे पासइ, पासित्ता आसुरुत्ता असिखेडगं गेण्हइ, गेण्हित्ता सत्तट्ट जाव उप्पयइ, उप्पइत्ता ताए उक्किट्ठाए जेणेव मागंदियदारगा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता एवं बयासी तत्पश्चात् रत्नद्वीप की देवी ने लवणसमुद्र के चारों तरफ इक्कीस चक्कर लगाकर, उसमें जो कुछ भी तृण आदि कचरा था, वह सब यावत् दूर किया। दूर करके अपने उत्तम प्रासाद में आई / आकर माकन्दीपुत्रों को उत्तम प्रासाद में न देख कर पूर्व दिशा के बनखण्ड में गई / वहाँ सब जगह उसने मार्गणा- गवेषणा की। गवेषणा करने पर उन माकन्दीपुत्रों की कहीं भी श्रुति, आदि-~ आवाज, छींक एवं प्रवृत्ति न पाती हुई उत्तर दिशा के वनखण्ड में गई। इसी प्रकार पश्चिम के वनखण्ड में भी गई, पर वे कहीं दिखाई न दिये। तब उसने अवधिज्ञान का प्रयोग किया। प्रयोग करके उसने माकन्दीपुत्रों को शैलक के साथ लवणसमुद्र के बीचों-बीच होकर चले जाते देखा / देखते हो वह तत्काल क्रुद्ध हुई। उसने ढाल-तलवार ली और सात-पाठ ताड़ जितनी ऊँचाई पर आकाश में उड़कर उत्कृष्ट एवं शीघ्र गति करके जहाँ माकन्दीपुत्र थे वहाँ आई / आकर इस प्रकार कहने लगी-- ४४-'हं भो मागंदियदारगा! अपत्थियपत्थिया! कि गं तुम्भे जाणह ममं विप्पजहाय सेलएणं जक्खेणं सद्धि लवणसमुदं मझमझेणं वोईवयमाणा ? तं एवमवि गए जइ णं तुब्भे ममं अवयक्खह तो भे अस्थि जीवियं, अण्णं णावयक्खह तो भे इमेण नीलुप्पलगवल० जाव एडेमि / 'अरे माकन्दी के पूत्रो! अरे मौत की कामना करने वालो ! क्या तुम समझते हो कि मेरा त्याग करके, शैलक यक्ष के साथ, लवणसमुद्र के मध्य में होकर तुम चले जाओगे ? इतने चले जाने पर भी (इतना होने पर भी) अगर तुम मेरी अपेक्षा रखते हो तो तुम जीवित रहोगे, और यदि तुम मेरी अपेक्षा न रखते होतो तो इस नील कमल एवं भैंस के सोंग जैसी काली तलवार से यावत् तुम्हारा मस्तक काट कर फेंक दूंगी। ४५--तए णं ते मागंदियदारए रयणद्दीवदेवयाए अंतिए एयमह्र सोच्चा णिसम्म अभीया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org