________________ उन्नीसवां अध्ययन : पुण्डरीक ] [ 521 मरण एवं नारक-जन्म २५--तए णं से कंडरीए राया रज्जे य रठे य अंतेउरे य जाव अज्झोववन्ने अदुहट्टवसट्टे अकामए अवस्सवसे कालमासे कालं किच्चा अहे सत्तमाए पुढवीए उक्कोसकालट्टिइयंसि नरयसि नेरइयत्ताए उववण्णे। तत्पश्चात् कंडरीक राजा राज्य में राष्ट्र में, और अन्तःपुर में यावत् अतीव आसक्त बना हुआ, आर्तध्यान के वशीभूत हुया, इच्छा के बिना ही, पराधीन होकर, कालमास में (मरण के अवसर पर) काल करके नीचे सातवीं पृथ्वी में सर्वोत्कृष्ट (तेतीस सागरोपम) स्थिति वाले नरक में नारक रूप से उत्पन्न हुआ। २६-एवामेव समणाउसो ! जाव पब्वइए समाणे पुणरवि माणुस्सए कामभोगे आसाएइ जाव अणुपरियट्टिस्सइ, जहा व से कंडरीए राया / इस प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो! यावत् हमारा जो साधु-साध्वी दीक्षित होकर पुनः मानवीय कामभोगों की इच्छा करता है, वह यावत् कंडरीक राजा की भांति संसार में पुनः पुनः पर्यटन करता है। पुण्डरीक को उग्र साधना २७-तए णं से पोंडरीए अणगारे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते बंदइ, णमंसइ, बंदिता णमंसित्ता थेराणं अंतिए दोच्चं पि चाउज्जामं धम्म पडिवज्जइ, छटुक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, करित्ता जाव अडमाणे सोयलुक्खं पाणभोयणं पडिगाहेइ, पडिगाहित्ता अहापज्जत्तमिति कटु पडिणियत्तइ, पडिणियत्तित्ता जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भत्तपाणं पडिदंसेइ, पडिदंसित्ता थेरेहि भगवंतेहिं अभणुनाए समाणे अमुच्छिए अगिद्ध अढिए अणज्झोववण्णे बिलमिव पण्णगभूएणं अप्पाणणं तं फासुएसणिज्ज असणं पाणं खाइमं साइमं सरीरकोटुगंसि पक्खिवइ / पुडरीकिणी नगरी से रवाना होने के पश्चात् पुडरीक अनगार वहाँ पहुँचे जहाँ स्थविर भगवान थे। वहां पहुंच कर उन्होंने स्थविर भगवान को वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दनानमस्कार करके स्थविर के निकट दूसरी बार चातुर्याम धर्म अंगीकार किया। फिर षष्ठभक्त के पारणक में, प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया, (दूसरे प्रहर में ध्यान किया) तीसरे प्रहर में यावत् भिक्षा के लिए अटन करते हुए ठंडा और रूखा भोजन-पान ग्रहण किया। ग्रहण करके यह मेरे लिए पर्याप्त है, ऐसा सोच कर लौट आये / लौट कर स्थविर भगवान् के पास आये। उन्हें लाया हुआ भोजन-पानी दिखलाया / फिर स्थविर भगवान् को आज्ञा होने पर मूर्छाहीन होकर तथा गद्धि, आसक्ति एवं तल्लीनता से रहित होकर, जैसे सर्प बिल में सीधा चला जाता है, उसी प्रकार (स्वाद न लेते हुए) उस प्रासुक तथा एषणीय प्रशन, पानी, खादिम और स्वादिम याहार को उन्होंने शरीर रूपी कोठे में डाल लिया। २८--तए णं तस्स पुंडरीयस्स अणगारस्स तं कालाइक्कंतं अरसं विरसं सोयलुक्खं पाणभोयणं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org