________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] [77 वन्दन-नमस्कार करता है जैसे अन्य ज्येष्ठ मुनियों को। इस प्रकार साधु की दृष्टि में भौतिक सम्पत्ति का मूल्य नहीं होता, केवल यात्मिक वैभव-रत्नत्रय का ही महत्व होता है। इसी नीति के अनुसार मेघ मुनि को सोने के लिए स्थान दिया गया था / १६३--तए णं 'मेहा' इ समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं एवं बयासी--'से पूणं तुम मेहा! राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि समणेहिं निग्गंथेहिं वायणाए पुच्छणाए जाव' महालियं च णं राई णो संचाएमि मुहत्तमवि अच्छि निमीलावेत्तए' तए णं तुम्भं मेहा ! इमे एयारूवे अज्झथिए समुप्पज्जित्था—'जया णं अहं अगारमझे वसामि तया णं मम समणा निग्गंथा आढायंति जाब' परियाणति, जम्पभिई च णं मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वयामि, तप्पभिई च णं मम समणा णो आढायंति, जाव नो परियाणंति / अदुत्तरं च णं समणा निग्गंथा राओ अप्पेगइया वायणाए जाव पाय-रय-रेणुगुडियं करेन्ति / तं सेयं खलु मम कल्लं पाउप्पभायाए समणं भगवं महावीर आपुच्छित्ता पुणरवि अगारमज्झे आवसित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेसि / संपेहित्ता अट्टदुहट्टवसट्टमाणसे जाव णिरयपडिरूवियं च णं तं रणि खवेसि / खवित्ता जेणामेव अहं तेणामेव हन्दमागए। से नणं मेहा ! एस अट्ठे समठे ?' 'हंता अढे समझें / ' तत्पश्चात् 'हे मेघ' इस प्रकार सम्बोधन करके श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने मेघकुमार से इस प्रकार कहा–'हे मेघ ! तुम रात्रि के पहले और पिछले काल के अवसर पर, श्रमण निर्ग्रन्थों के वाचना पृच्छना आदि के लिए आवागमन करने के कारण, लम्बी रात्रि पर्यन्त थोड़ी देर के लिए भी आँख नहीं मीच सके / मेघ ! तब तुम्हारे मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हया-जब मैं गहवास में निवास करता था, तब श्रमण निर्ग्रन्थ मेरा अादर करते थे यावत मझे जानते थे: परन्त जब से मैंने मुडित होकर, गृहवास से निकल कर साधुता की दीक्षा ली है, तब से श्रमण निर्ग्रन्थ न मेरा आदर करते हैं, न मुझे जानते हैं। इसके अतिरिक्त श्रमण रात्रि में कोई वाचना के लिए यावत् (पृच्छना आदि के लिए) आते-जाते मेरे बिस्तर को लांघते हैं यावत् मुझे पैरों की रज से भरते हैं। अतएव मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि कल प्रभात होने पर श्रमण भगवान् महावीर से पूछ कर मैं पुनः गहवास में बसने लगूं।' तुमने इस प्रकार का विचार किया है। विचार करके प्रार्तध्यान के कारण दुःख से पीडित एवं संकल्प-विकल्प से युक्त मानस वाले होकर नरक की तरह (वेदना में) रात्रि व्यतीत की है / रात्रि व्यतीत करके शीघ्रतापूर्वक मेरे पास आए हो। हे मेघ ! यह अर्थ समर्थ है--- मेरा यह कथन सत्य है ?' मेघकुमार ने उत्तर दिया-जी हाँ, यह अर्थ समर्थ है-प्रभो ! आपका कथन यथार्थ है / प्रतिबोध : पूर्वभवकथन १६४-एवं खलु मेहा ! तुम इओ तच्चे अईए भवग्गहणे वेयड्ढगिरिपायमूले वणयरेहि णिव्वत्तियणामधेज्जे सेए संखदलउज्जल-विमल-निम्मल-दहिघण-गोखीरफेण-रयणियर (दगरयरययणियर )प्पयासे सतुस्सेहे णवायए दसपरिणाहे सत्तंगपइटिठए सोमे समिए सुरुवे पुरतो उदग्गे समूसियसिरे सुहासणे पिट्ठओ वराहे अयाकुच्छो अच्छिद्दकुच्छी अलंबकुच्छी पलंबलंबोदराहरकरे 1. प्र. अ. सूत्र 161 2-3 प्र.अ.सूत्र 161, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org