________________ [ ज्ञाताधर्मकथा १६२-तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव [चितिए पत्थिए मणोगते संकप्पे] समप्पज्जित्था एवं खल अहं सेणियस्स रन्नो प्रत्ते, धारिणीए देवीए अत्तए मेहे जाव' सवणयाए, तं जया णं अहं अगारमज्झे वसामि, तया णं मम समणा निग्गंथा आढायंति, परिजाणंति, सक्कारेंति, संमाणेति, अट्ठाई हेऊई पसिणाइं कारणाई वागरणाई आइक्खंति, इठ्ठाहिं कंताहिं वग्गूहिं आलवेन्ति, संलवेन्ति, जप्पभिई च णं अहं मुंडे भवित्ता अगाराणो अणगारियं पव्वइए, तप्पभियं च णं मम समणा नो आढायंति जाव नो संलवन्ति / अदुत्तरं च णं मम समणा निग्गंथा राओ पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि वायणाए पुच्छणाए जाव महालियं च णं रत्ति नो संचाएमि अच्छि निमिलावेत्तए / तं सेयं खलु मज्झं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जावतेयसा जलंते समणं भगवं महावीरं आपुच्छित्ता पुणरवि अगारमज्झे वसित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेइ / संपेहित्ता अट्टदुहट्टवसट्टमाणसगए णिरयपडिरूवियं च णं तं रणि खवेइ, खवित्ता कल्लं पाउप्पभायाए सुविमलाए रयणीए' जाव तेयसा जलते जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ / करित्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जाव' पज्जुवासइ / तब मेघकुमार के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय चिन्तन, प्रार्थित एवं मानसिक संकल्प उत्पन्न हुआ 'मैं श्रेणिक राजा का पुत्र और धारिणी देवी का आत्मज(उदरजात) मेघकुमार हूँ / अर्थात् [इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ मणाम हूँ, मेरा दर्शन तो दूर] गूलर के पुष्प के समान मेरा नाम श्रवण करना भी दुर्लभ है / जब मैं घर में रहता था, तब श्रमण निर्ग्रन्थ मेरा आदर करते थे, 'यह कुमार ऐसा है' इस प्रकार जानते थे, सत्कार-सन्मान करते थे, जीवादि पदार्थों को, उन्हें सिद्ध करने वाले हेतुओं को, प्रश्नों को, कारणों को और व्याकरणों (प्रश्न के उत्तरों) को कहते थे और बार-बार कहते थे / इष्ट और मनोहर वाणी से मेरे साथ पालाप-संलाप करते थे। किन्तु जब से मैंने मुडित होकर, गृहवास से निकलकर साधु-दीक्षा अंगीकार की है, तब से लेकर साधु मेरा आदर नहीं करते, यावत् पालापसंलाप नहीं करते / तिस पर भी वे श्रमण निर्ग्रन्थ पहली और पिछली रात्रि के समय वाचना, पृच्छना आदि के लिए जाते-आते मेरे संस्तारक को लांघते हैं और मैं इतनी लम्बी रात भर में आँख भी न मीच सका / अतएव कल रात्रि के प्रभात रूप होने पर यावत् तेज से जाज्वल्यमान होने पर (सूर्योदय के पश्चात्) श्रमण भगवान् महावीर से प्राज्ञा लेकर पुनः गृहवास में वसना ही मेरे लिए अच्छा है।' मेधकुमार ने ऐसा विचार किया। विचार करके आर्तध्यान के कारण दुःख से पीड़ित और विकल्प क्त मानस को प्राप्त होकर मेघकूमार ने वह रात्रि नरक की भाँति व्यतीत की। रात्रि व्यतीत करके प्रभात होने पर, सूर्य के तेज से जाज्वल्यमान होने पर, जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ पाया। पाकर तीन वार आदक्षिण प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके भगवान् को वन्दन किया, नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके यावत् (न बहुत निकट, न बहुत दूर-समुचित स्थान पर स्थित होकर विनय-पूर्वक) भगवान की पर्युपासना करने लगा। विवेचन साधु-संस्था साम्यवाद की सजीव प्रतीक है। उसमें गहस्थावस्था की सम्पन्नताअसम्पन्नता के प्राधार पर किसी भी प्रकार का भेद नहीं होता / आगमों में उल्लेख मिलता है कि चक्रवर्ती सम्राट के दास का भी दास यदि पहले दीक्षित हो चुका है और उसके पश्चात् स्वयं चक्रवर्ती दीक्षित होता है तो वह उस पर्यायज्येष्ठ पूर्वावस्था के दास के दास को भी उसी प्रकार 1. प्र. अ. सूत्र 156 2. प्र. अ. सूत्र 161 3-4 प्र.अ. सूत्र 28, 5. प्र. अ. सूत्र 113, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org