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________________ 378 ] [ज्ञाताधर्मकथा गाँव धधक रहा है, तो आयुष्मन् तेतलिपुत्र ! हम कहाँ जाएँ ? कहां शरण लें ? अभिप्राय यह है कि जिसके चारों ओर घोर भय का वायमण्डल हो और जिसे कहीं भी क्षेम-कुशल न दिखाई दे, उसे क्या करना चाहिए ? उसके लिए हितकर मार्ग क्या है ? ५१-तए णं से तेयलिपुत्ते पोट्टिलं देवं एवं वयासी—'भीयस्स खलु भो पव्वज्जा सरणं, उक्कंठियस्स सदेसगमणं, छुहियस्स अन्न, तिसियस्स पाणं, आउरस्स भेसज्ज, माइयस्स रहस्सं, अभिजुत्तस्स पच्चयकरणं, अद्धाणपरिसंतस्स वाहणगमणं, तरिउकामस्स पवहणं किच्च,' परं अभिओजितुकामस्स सहायकिच्चं, खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स एत्तो एगमवि ण भवइ / तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने पोट्टिल देव से इस प्रकार कहा-अहो ! इस प्रकार सर्वत्र भयभीत पुरुष के लिए दीक्षा ही शरणभूत है। जैसे उत्कंठित हुए पुरुष के लिए स्वदेश शरणभूत है, भूखे को अन्न, प्यासे को पानी, बीमार को प्रोपध, मायावी को गुप्तता, अभियुक्त को (जिस पर अपराध करने का आरोप लगाया गया हो उसे) विश्वास उपजाना, थके-मांदे को वाहन पर चढ़ कर गमन करना, तिरने के इच्छुक को जहाज और शत्रु का पराभव करने वाले को सहायकृत्य (मित्रों की सहायता) शरणभूत है / क्षमाशील, इन्द्रियदमन करने वाले, जितेन्द्रिय (इन्द्रियविषयों में राग-द्वेष न करने वाले) को इनमें से कोई भय नहीं होता। विवेचन--सर्वत्र भयग्रस्त को दीक्षा क्यों शरणभूत है ? इसका स्पष्टीकरण यह है कि क्रोध का निग्रह करने वाले क्षमाशील, इन्द्रियों का और मन का दमन करने वाले तथा जितेन्द्रिय अर्थात् इन्द्रियों के विषय में राग न रखने वाले पुरुष को इनमें से एक भी भय नहीं है / भय काया और माया के लिए ही होता है / जिसने दोनों की ममता त्याग दी, वह सदैव और सर्वत्र निर्भय है। प्रस्तुत सूत्र 46 से तेतलिपुत्र का जो वर्णन किया गया है, वह अत्यन्त विस्मयजनक है, पर यह सब देवी माया का चमत्कार ही समझना चाहिए / दैवी चमत्कार तर्क की सीमा से बाहर एवं बुद्धि की परिधि में नहीं आने वाला होता है। ५२-तए णं से पोट्टिले देवे तेयलिपुत्तं अमच्चं एवं क्यासी-सुठ्ठ णं तुम तेयलिपुत्ता ! एयम आयाणाहि त्ति कटु दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयइ, वइत्ता जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए। तत्पश्चात् पोट्टिल देव ने तेतलिपुत्र अमात्य से इस प्रकार कहा-'हे तेतलिपुत्र ! तुम ठीक कहते हो / अर्थात् भयग्रस्त के लिए प्रवज्या शरणभूत है, यह तुम्हारा कथन सत्य है / मगर इस अर्थ को तुम भलीभाँति जानो, अर्थात् इस समय तुम भयभीत हो तो तदनुसार आचरण करके यह बात समझोदीक्षा ग्रहण करो। इस प्रकार कहकर देव ने दूसरी बार और तीसरी बार भी ऐसा ही कहा / कहकर देव जिस दिशा से प्रकट हुअा था, उसी दिशा में वापिस लौट गया। ५३--तए णं तस्स तेयलिपुत्तस्स सुभेणं परिणामेणं जाइसरणे समुप्पन्ने / तए णं तस्स तेयलिपत्तस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुष्पन्ने-'एवं खलु अहं इहेव जंबुद्दीवे दोवे महाविदेहे वासे पोक्खलावतीविजए पोंडरीगिणीए रायहाणीए महापउमे नाम राया होत्था / तए णं अहं थेराणं अंतिए मुडे भवित्ता जाव [पव्वइए सामाइयमाइयाइ] चोदसपुवाइं अहिज्जित्ता बहूणि वासाणि सामनपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए महासुक्के कप्पे देवे उववन्ने / 1. पाठान्तर-पवहण किच्चं / ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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