________________ 82] [ ज्ञाताधर्मकथा करके, इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में, दक्षिणार्ध भरत में, गंगा नामक महानदी के दक्षिणी किनारे पर, विन्ध्याचल के समीप एक मदोन्मत्त श्रेष्ठ गंधहस्ती से, एक श्रेष्ठ हथिनी की कूख में हाथी के बच्चे के रूप में उत्पन्न हुए / तत्पश्चात् उस हथिनी ने नौ मास पूर्ण होने पर वसन्त मास में तुम्हें जन्म दिया। १७२-तए णं तुम मेहा ! गम्भवासाओ विप्पमुक्के समाणे गयकलभए यावि होत्था, रत्तुप्पलरत्तसूमालए जासुमणा-रत्तपारिजत्तय-लक्खारस-सरसकुकुम-संझब्भरागवन्ने इठे णियस्स जूहवइणो गणियायारकणेरु-कोत्थ-हत्थी अणेगहत्थिसयसंपरिबुडे रम्मेसु गिरिकाणणेसु सुहंसुहेणं विहरसि / तत्पश्चात् हे मेघ ! तुम गर्भावास से मुक्त होकर गजकलभक (छोटे हाथी) भी हो गए / लाल कमल के समान लाल और सुकुमार हुए / जवाकुसुम, रक्त वर्ण पारिजात नामक वृक्ष के पुष्प, लाख के रस, सरस कुकुम और सन्ध्याकालीन बादलों के रंग के समान रक्तवर्ण हुए। अपने यूथपति के प्रिय हुए / गणिकाओं जैसी युक्ती हथिनियों के उदर-प्रदेश में अपनी सूड डालते हुए काम-क्रीडा में तत्पर रहने लगे / इस प्रकार सैकड़ों हाथियों से परिवृत होकर तुम पर्वत के रमणीय काननों में सुखपूर्वक विचरने लगे। १७३-तए णं तुम मेहा ! उम्मुक्कबालभावे जोव्वणगमणुपत्ते जूहवइणा कालधम्मुणा संजुत्तेणं तं जूहं सयमेव पडिवज्जसि। हे मेघ ! तुम बाल्यावस्था को पार करके यौवन को प्राप्त हुए। फिर यूथपति के कालधर्म को प्राप्त होने पर-मर जाने पर, तुम स्वयं ही उस यूथ को वहन करने लगे अर्थात् यूथपति हो गये। १७४--तए णं तुमं महा ! वणयरेहि निव्वत्तियनामधेज्जे जाव' चउदंते मेरुप्पमे हस्थिरयणे होत्था / तत्थ णं तुम मेहा ! सत्तगपइट्ठिए तहेव जाव' पडिरूवे / तत्थ णं तुमं मेहा सत्तसइयस्स जूहस्स आहेवच्चं जाव अभिरमेत्था / ___ तत्पश्चात् हे मेघ ! वनचरों ने तुम्हारा नाम मेरुप्रभ रखा / तुम चार दाँतों वाले हस्तिरत्न हुए / हे मेध ! तुम सात अगों से भूमि का स्पर्श करने वाले, अादि पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त यावत् सुन्दर रूप वाले हुए। हे मेघ ! तुम वहां सात सौ हाथियों के यूथ का अधिपतित्व, स्वामित्व, नेतृत्व आदि करते हुए तथा उनका पालन करते हुए अभिरमण करने लगे। हस्ती-भव में जातिस्मरण १७५--तए णं तुम अन्नया कयाइ गिम्हकालसमयंसि जेठामूले वणदव-जालापलितेसु वर्णतेसु सुधूमाउलासु दिसासु जाव मंडलवाए व्व परिब्भमंते भीए तत्थे जाव' संजायभए बहूहि हत्थीहि य जाव कलभियाहि य सद्धि संपरिवुडे सव्वओ समंता दिसोदिसि विप्पलाइत्था / 2. प्र.अ. 164 3. प्र. अ. 165 4. प्र. अ. 167 1. प्र. अ. सूत्र 164 5. प्र.प्र. 168 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org/