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________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [415 लूहंता, लूहित्ता हंसलक्खणं पट्टसाडगं परिहेंति, परिहित्ता सव्वालंकारविभूसियं करेंति, करित्ता विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं भोयाति भोयावित्ता सागरदत्तस्स उवणेति / तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने उस भिखारी का अलंकारकर्म (हजामत आदि) कराया / फिर शतपाक और सहस्रपाक (सौ या हजार मोहरें खर्च करके या सौ या हजार औषध डालकर बनाये गये) तेल से अभ्यंगन (मर्दन) किया / अभ्यंगन हो जाने पर सुवासित गंधद्रव्य के उबटन से उसके शरीर का उबटन किया। फिर उष्णोदक, गंधोदक और शीतोदक से स्नान कराया। स्नान करवाकर बारीक और सुकोमल गंधकाषाय वस्त्र से शरीर पौंछा। फिर हंस लक्षण (श्वेत) वस्त्र पहनाया / वस्त्र पहनाकर सर्व अलंकारों से विभूषित किया / विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन कराया। भोजन के बाद उसे सागरदत्त के समीप ले गए / ग ६४-तए णं सागरदत्ते सूमालियं दारियं ण्हायं जाव सव्वालंकारविभूसियं करित्ता तं दमगपुरिसं एवं वयासी-एस णं देवाणुप्पिया ! मम धूया इट्ठा, एयं च णं अहं तव भारियत्ताए दलामि भद्दियाए भद्दओ भविज्जासि / तत्पश्चात् सागरदत्त ने सुकुमालिका दारिका को स्नान कराकर यावत् समस्त अलंकारों से अलंकृत करके, उस भिखारी पुरुष से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिय ! यह मेरी पुत्री मुझे इष्ट है। इसे मैं तुम्हारी भार्या के रूप में देता हूँ। तुम इस कल्याणकारिणी के लिए कल्याणकारी होना / ' पुनः परित्याग ६५–तए णं से दमगपुरिसे सागरदत्तस्स एयमझें पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता सूमालियाए दारियाए सद्धि वासघरं अणुपविसइ, सूमालियाए दारियाए सद्धि तलिगंसि निवज्जइ / तए णं से दमगपुरिसे सूमालियाए इमं एयारूवं अंगफासं पडिसंवेदेइ, सेसं जहा सागरस्स जाव सयणिज्जाओ अब्भुढेइ, अब्भुद्वित्ता वासघराओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता खंडमल्लगं खंडघडं च गहाय मारामुक्के विव काए जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए। तए णं सा सूमालिया जाव 'गए णं से दमगपुरिसे' ति कटु ओह्यमणसंकप्पा जाव झियायइ। उस द्रमक (भिखारी) पुरुष ने सागरदत्त की यह बात स्वीकार कर ली / स्वीकार करके सुकुमालिका दारिका के साथ वासगृह में प्रविष्ट हुआ और सुकुमालिका दारिका के साथ एक शय्या में सोया। उस समय उस द्रमक पुरुष ने सुकुमालिका के अंगस्पर्श को उसी प्रकार अनुभव किया। शेष वृत्तान्त सागर दारक के समान समझना चाहिए / यावत् वह शय्या से उठा। उठ कर शयनागार से बाहर निकला। बाहर निकलकर अपना वही सिकोरे का टुकड़ा और घड़े का टुकड़ा ले करके जिधर से आया था, उधर ही ऐसा चला गया मानो किसी कसाईखाने से मुक्त हुआ हो या मारने वाले पुरुष से छुटकारा पाकर काक भागा हो / ___ 'वह द्रमक पुरुष चल दिया / ' यह सोचकर सुकुमालिका भग्नमनोरथ होकर यावत् चिन्ता करने लगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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