________________ [ ज्ञाताधर्मकथा ६६-तए णं सा भद्दा कल्लं पाउपभायाए दासचेडिं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासो,--जाव सागरदत्तस्स एयमट्ठ निवेदेइ / तए णं से सागरदत्ते तहेव संभंते समाणे जेणेव वासहरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सूमालियं दारियं अंके निवेसेइ, निवेसित्ता एवं क्यासी-'अहो णं तुमं पुत्ता ! पुरापोराणाणं जाव [दुच्चिण्णाणं दुष्पराकंताणं कडाण पावाणं कम्माणं पावं फलवित्तिविसेसं] पच्चणुब्भवमाणी विहरसि, तं मा गं तुमं पुत्ता! ओहयमणसंकप्पा जाव झियाहि, तुम णं पुत्ता ! मम महाणसंसि विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं जहा पोट्टिला जाव परिभाएमाणो विहराहि / ' तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही ने दूसरे दिन प्रभात होने पर दासचेटी को बुलाया / बुलाकर पूर्ववत् कहा—सागरदत्त के प्रकरण में कथित दातौन-पानी ले जाने आदि का वृत्तान्त यहाँ जानना चाहिए / यहाँ तक कि दासचेटी ने सागरदत्त सार्थवाह के पास जाकर यह अर्थ निवेदन किया। तब सागरदत्त उसी प्रकार संभ्रान्त होकर वासगृह में पाया / आकर सुकुमालिका को गोद में बिठलाकर कहने लगा—'हे पुत्री ! तू पूर्वजन्म में किये हिंसा आदि दुष्कृत्यों द्वारा उपार्जित पापकर्मों का फल भोग रही है / अतएव बेटी ! भग्नमनोरथ होकर यावत् चिन्ता मत कर / हे पुत्री ! मेरी भोजनशाला में तैयार हुए विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य आहार को.--पोट्टिला की तरह कहना चाहिएयावत् श्रमणों आदि को देती हुई रह / सुकुमालिका को दानशाला ६७-तए णं सा सूमालिया दारिया एयमझें पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता महाणसंसि विपुलं असणं पाणं खाडम जाव दलमाणी विहरड / तेणं कालेणं तेणं समएणं गोवालियाओ अज्जाओ बहुस्सुयाओ एवं जहेव तेर्यालणाए सुव्वयाओ तहेव समोसढाओ, तहेव संघाडओ जाव अणुपविठे, तहेव जाव सूमालिया पडिलाभित्ता एवं वयासी-'एवं खलु अज्जाओ ! अहं सागरस्स अणिट्ठा जाव अमणामा, नेच्छइ णं सागरए मम नाम वा जाव परिभोगं वा, जस्स जस्स वि य णं दिज्जामि तस्स तस्स वि य णं अणिट्ठा जाव अमणामा भवामि, तुब्भे य णं अज्जाओ ! बहुनायाओ, एवं जहा पोटिला जाव उवलद्धे जेणं अहं सागरस्स दारगस्स इट्ठा कंता जाव भवेज्जामि।' तब सुकुमालिका दारिका ने यह बात स्वीकार की। स्वीकार करके भोजनशाला में विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य आहार देती-दिलाती हुई रहने लगी। उस काल और उस समय में गोपालिका नामक बहुश्रुत अार्या, जैसे तेतलिपुत्र नामक अध्ययन में सुव्रता साध्वी के विषय में कहा है, उसी प्रकार पधारी / उसी प्रकार उनके संघाड़े ने यावत् सुकुमालिका के घर में प्रवेश किया। उसी प्रकार सुकुमालिका ने यावत् आहार वहरा कर इस प्रकार कहा-'हे पार्यायो ! मैं सागर के लिए अनिष्ट हूँ यावत् अमनोज्ञ हूँ। सागर मेरा नाम भी नहीं सुनना चाहता, यावत् परिभोग भी नहीं चाहता। जिस-जिस को भी मैं दी गई, उसी-उसी को अनिष्ट यावत् अमनोज्ञ हुई हूँ। पार्यायो ! आप बहुत ज्ञानवाली हो। इस प्रकार पोट्टिला ने जो कहा था, वह सब यहां भी जानना चाहिए / यहाँ तक कि आपने कोई मंत्र-तंत्र आदि प्राप्त किया है, जिससे मैं सागर दारक को इष्ट कान्त यावत् प्रिय हो जाऊँ? 1. देखिए, तेतालपुत्र अध्ययन 14 2. देखिए, तेतलिपुत्र अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org