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________________ पन्द्रहवां अध्ययन : नन्दीफल ] [ 385 जायगा, उसको सहायता करेगा और सुख-पूर्वक अहिच्छत्रा नगरी तक पहुंचाएगा। दो बार और तीन बार ऐसी घोषणा कर दो। घोषणा करके मेरी यह आज्ञा वापिस लौटायो--- मुझे सूचित करो।' ६-तए णं ते कोडुबियपुरिसा जाव एवं वयासो-हंदि ! सुगंतु भगवंतो चंपानगरीवत्थव्वा बहवे चरगा य जाव पच्चविणति / तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् इस प्रकार घोषणा की--'हे चम्पा नगरी के निवासी भगवंतो! चरक आदि ! सुनो, इत्यादि कहकर पूर्वोक्त घोषणा करके उन्होंने धन्य सार्थवाह की प्राज्ञा उसे वापिस सौंपी। ७-तए णं से कोडुबियघोसणं सुच्चा चंपाए णयरीए बहवे चरगा य जाव गिहत्था य जेणेव धण्णे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छति। तए णं धण्णे तेसि चरगाण य जाव गिहत्थाण य अच्छत्तगस्स छत्तं दलयइ जाव पत्थयणं दलयइ / दलइत्ता एवं वयासी-'गच्छह णं देवाणुप्पिया! चंपाए नयरोए बहिया अगुज्जाणंसि ममं पडिवालेमाणा चिट्ठह / ' कौटुम्बिक पुरुषों की पूर्वोक्त घोषणा सुनकर चम्पा नगरी के बहुत-से चरक यावत् गृहस्थ धन्य सार्थवाह के समीप पहुँचे / तब उन चरक यावत् गृहस्थों में से जिनके पास जूते नहीं थे, उन्हें धन्य सार्थवाह ने जूते दिलवाये, यावत् पथ्यदन दिलवाया। फिर उनसे कहा-'देवानुप्रियो ! तुम जागो और चम्पा नगरी के बाहर उद्यान में मेरी प्रतीक्षा करते हुए ठहरो।' धन्य का प्रस्थान ८-तए णं चरगा य जाव गिहत्था य धण्णेणं सत्यवाहेणं एवं वुत्ता समाणा जाव चिट्ठति / तए णं धणे सत्यवाहे सोहणंसि तिहि-करण-नक्खत्तंसि विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावित्ता मित्तनाइ [नियग-सयण-संबंधि-परियणं] आमंतेइ, आमंतित्ता भोयणं भोयावेइ, भोयावित्ता आपुच्छइ, आपुच्छित्ता सगडीसागडं जोयावेइ, जोयावित्ता चंपानगरीओ निग्गच्छइ / निग्गच्छित्ता णाइविप्पगिठेहि अद्धाणेहि वसमाणे वसमाणे सुहेहि वसहिपायरासेहिं अंगं जणवयं मझमज्झेणं जेणेव देसग्गं तेणेव उवागच्छइ, उवाच्छित्ता सगडीसागडं मोयावेइ, मोयावित्ता सत्थणिवेसं करेइ, करित्ता कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासो तदनन्तर वे पूर्वोक्त चरक यावत् गृहस्थ आदि धन्य सार्थवाह के इस प्रकार कहने पर प्रधान उद्यान में पहुँचकर उसकी प्रतीक्षा करते हुए ठहरे। तब धन्य सार्थवाह ने शुभ तिथि, करण और नक्षत्र में विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन बनवाया / बनवाकर मित्रों, ज्ञातिजनों आदि को आमन्त्रित करके उन्हें जिमाया। जिमा कर उनसे अनुमति ली। अनुमति लेकर गाड़ी-गाड़े जुतवाये और फिर चम्पा नगरी से बाहर निकला / निकल कर बहुत दूर-दूर पर पड़ाव न करता हुआ अर्थात् थोड़ी-थोड़ी दूर पर मार्ग में बसता-बसता, सुखजनक वसति (रात्रिवास) और प्रातराश (प्रातःकालीन भोजन) करता हुआ अंग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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