________________ 384] [ ज्ञाताधर्मकथा किसी समय धन्य सार्थवाह के मन में मध्य रात्रि के समय इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तित (मन में स्थित), प्रार्थित (मन को इष्ट), मनोगत (मन में ही गुप्त रहा हुया) संकल्प (विचार) उत्पन्न हुा-'विपुल (घी, तेल, गुड़, खांड आदि) माल लेकर मुझे अहिच्छत्रा नगरी में व्यापार करने के लिए जाना श्रेयस्कर है।' उसने ऐसा विचार किया। विचार करके गणिम (गिनगिन कर बेचने योग्य नारियल आदि), धरिम (तोल कर बेचने योग्य गुड़ आदि), मेय (पायली आदि से माप कर बेचने योग्य अन्न आदि) और परिच्छेद्य (काट-काट कर बेचने योग्य वस्त्र वगैरह) माल को ग्रहण किया। ग्रहण करके गाड़ो-गाड़े तैयार किये। तैयार करके गाड़ी-गाड़े भरे / भर कर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया / बुला कर उनसे इस प्रकार कहा ___५--'गच्छइ णं तुम्भे देवाणुप्पिया! चंपाए नयरीए सिंघाडग जाव पहेसु उग्घोसेमाणा उग्घोसेमाणा एवं वयह-एवं खलु देवाणुप्पिया! धणे सत्थवाहे विपुले पणियं आदाय इच्छइ अहिच्छत्तं नरि बाणिज्जाए गमित्तए / तं जो णं देवाणुप्पिया ! चरए वा, चोरिए वा, चम्मखण्डिए वा, भिच्छुडे वा, पंडुरंगे वा, गोयमे वा, गोवईए वा, गिहिधम्मे वा, गिहिधचितए' वा अविरुद्धविरुद्ध-वुड्ढ-सावग-रत्तपड-निग्गंथप्पभिई पासडत्थे वा गिहत्थे वा, तस्स णं धण्णणं सद्धि अहिच्छत्तं नारं गच्छइ, तस्स णं धण्णणे सत्थवाहे अच्छत्तगस्स छत्तगं दलयइ, अणुवाहणस्स उवाहणाओ दलयइ, अकुडियस्स कुडियं दलयइ, अपत्थयणस्स पत्थयणं दलयइ, अपक्खेवगस्स पक्खेवं दलयइ, अंतरा वि य से पडियस्स वा भग्गलुग्गस्स साहेज्जं दलयइ, सुहंसुहेण य णं अहिच्छत्तं संपावेइ / ' त्ति कटु दोच्चं पि तच्चं पि घोसेह, घोसित्ता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह।' 'देवानुप्रियो ! तुम जानो / चम्पा के शृगाटक यावत् सब मार्गों में, गली-गली में घोषणा कर दो 'हे देवानुप्रियो ! धन्य सार्थवाह विपुल माल भर कर अहिच्छत्रा नगरी में वाणिज्य के निमित्त जाना चाहता है / अतएव हे देवानुप्रियो ! जो भी चरक (चरक मत का भिक्षुक) चीरिक (गली में पड़े चीथड़ों को पहनने वाला) चर्मखंडिक (चमड़े का टुकड़ा पहनने वाला) भिक्षांड (बौद्ध भिक्षुक) पांडुरंक (शैवमतावलम्बी भिक्षाचर) गोतम (बैल को विचित्र-विचित्र प्रकार की करामात सिखा कर उससे प्राजोविका चलाने वाला) गोवती (जब गाय खाय तो आप खाय गाय पानी पीए तो आप पानी पीए, गाय सोये तो आप सोये, गाय चले तो आप चले, इस प्रकार के व्रत का आचरण करने वाला) गृहिधर्मा (गृहस्थधर्म को श्रेष्ठ मानने वाला) गृहस्थधर्म का चिन्तन करने वाला अविरुद्ध (विनयवान्) विरुद्ध (अक्रियावादि-नास्तिक आदि) वृद्ध-तापस श्रावक अर्थात ब्राह्मण रक्तपट (परिव्राजक) निर्ग्रन्थ (साधु) आदि व्रतवान् या गृहस्थ-जो भी कोई--धन्य सार्थवाह के साथ अहिच्छत्रा नगरी में जाना चाहे, उसे धन्य सार्थवाह अपने साथ ले जायगा। जिसके पास छतरी न होगी उसे छतरी दिलाएगा / वह बिना जूते वाले को जूते दिलाएगा, जिसके पास कमंडलु नहीं होगा उसे कमंडल दिलाएगा, जिसके पास पथ्यदन (मार्ग में खाने के लिए भोजन) न होगा उसे पथ्यदन दिलाएगा, जिसके पास प्रक्षेप (चलते-चलते पथ्यदन समाप्त हो जाने पर रास्ते में पथ्यदन खरीदने के लिए आवश्यक धन) न होगा, उसे प्रक्षेप दिलाएगा, जो पड़ जाएगा, भग्न हो जायगा या रुग्ण हो 1. पाठान्तर-'धम्मचिंतए वा।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org