________________ 452] [ ज्ञाताधर्मकथा आप स्वयं छह रथों में बैठ कर लवणसमुद्र के मध्यभाग में होकर जाने लगे। जाते-जाते जहाँ अमरकंका राजधानी थी और जहाँ अमरकंका का प्रधान उद्यान था, वहाँ पहुँचे / पहुँचने के बाद रथ रोका और दारुक नामक सारथी को बुलाया। उसे बुलाकर कहा १८०--'गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया! अमरकंकारायहाणि अणुपविसाहि, अणुपविसित्ता पउमणाभस्स रण्णो वामेणं पाएणं पायपीढं अक्कमित्ता कुतग्गेणं लेहं पणामेहि; तिवलियं भिडि णिडाले साहटु आसुरुत्ते रुठे कुद्धे कुविए चंडिक्किए एवं वदह–'हं भो पउमणाहा ! अपत्थियपत्थिया! दुरंतपंतलक्खणा ! होणपुग्णचाउद्दसा! सिरिहिरिधीपरिवज्जिया ! अज्ज ण भवसि, कि णं तुमं ण जाणासि कण्हस्स वासुदेवस्स भगिणि दोवई देवि इहं हवं आणमाणे ? तं एयमवि गए पच्चप्पिणाहि णं तुम दोवइं देवि कण्हस्स वासुदेवस्स, अहवा णं जुद्धसज्जे णिग्गच्छाहि, एस गं कण्हे वासुदेवे पंचहि पंडवेहि अप्पछठे दोवईदेवीए कूवं हव्वमागए।' 'देवानुप्रिय ! तु जा और अमरकंका राजधानी में प्रवेश कर / प्रवेश करके पद्मनाभ राजा के समीप जाकर उसके पादपीठ को अपने बाँयें पैर से आक्रान्त करके-ठोकर मार करके भाले की नोंक द्वारा यह (लेख) पत्र देना / फिर कपाल पर तीन बल वाली भृकुटि चढ़ा कर, आँखें लाल करके, रुष्ट होकर, क्रोध करके, कुपित होकर और प्रचण्ड रूप धारण कर कहना-'अरे पद्मनाभ ! मौत की कामना करने वाले ! अनन्त कुलक्षणों वाले ! पुण्यहीन ! चतुर्दशी के दिन जन्मे हुए (अथवा हीनपुण्य वाली चतुर्दशी अर्थात् कृष्ण पक्ष की चौदस को जन्मे हुए ) श्री, लज्जा और बुद्धि से हीन ! अाज तू नहीं बचेगा / क्या तू नहीं जानता कि तू कृष्ण वासुदेव की भगिनी द्रौपदी देवी को यहां ले आया है ? खैर, जो हुआ सो हुअा, अब भी तू द्रौपदी देवी कृष्ण वासुदेव को लौटा दे अथवा युद्ध के लिए तैयार होकर बाहर निकल / कृष्ण वासुदेव पांच पाण्डवों के साथ छठे अाप द्रौपदी देवी को वापिस छीनने के लिए अभी-अभी यहाँ आ पहुँचे हैं।' १८१--तए णं से दारुए सारही कण्हेणं वासुदेवेणं एवं बुत्ते समाणे हद्वतुढे जाव पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता अमरकंकारायहाणि अणुपविसइ अणुपविसित्ता जेणेव पउमनाभे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव वद्धावेत्ता एवं यासी-'एस णं सामी ! मम विणयपडिवत्ती, इमा अन्ना मम सामियस्स समुहाणत्ति' त्ति कटु आसुरुत्ते वामपाएणं पायपीढं अणुक्कमति, अणुक्कमित्ता कोतग्गेणं लेहं पणामइ, पणामित्ता जाव कूवं हव्वमागए। तत्पश्चात् वह दारुक सारथी कृष्ण वासुदेव के इस प्रकार कहने पर हर्षित और संतुष्ट हुआ / यावत् उसने यह आदेश अंगीकार किया। अंगीकार करके अमरकंका राजधानी में प्रवेश किया। प्रवेश करके पद्मनाभ के पास गया। वहाँ जाकर दोनों हाथ जोड़कर यावत् अभिनन्दन किया और कहा-स्वामिन् ! यह मेरी अपनी विनय-प्रतिपत्ति (शिष्टाचार) है। मेरे स्वामी के मुख से कही हुई आज्ञा दूसरी है / वह यह है / इस प्रकार कह कर उसने नेत्र लाल करके और क्रुद्ध होकर अपने वाम पैर से उसके पादपीठ को आक्रान्त किया-ठुकराया। भाले की नोंक से लेख दिया। फिर कृष्ण वासुदेव का समस्त आदेश कह सुनाया, यावत् वे स्वयं द्रौपदी को वापिस लेने के लिए आ पहुँचे हैं / १८२--तए णं से पउमणाभे दारुएणं सारहिणा एवं बुत्ते समाणे आसुरुत्ते तिलि भिडि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org