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________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [ 451 आया / उसने कहा-'देवानुप्रिय ! कहिए मुझे क्या करना है ?' तब कृष्ण वासुदेव ने सुस्थित देव से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! द्रौपदी देवी यावत् पद्मनाभ राजा के भवन में हरण की गई है, अतएव तुम हे देवानुप्रिय ! पाँच पाण्डवों सहित छठे मेरे छह रथों को लवणसमुद्र में मार्ग दो, जिससे मैं (पाण्डवों सहित) अमरकंका राजधानी में द्रोपदी देवी को वापस छीनने के लिए जाऊँ।' १७६-तए णं से सुत्थिए देवे कण्हं वासुदेवं एवं वयासो—'किण्णं देवाणुप्पिया! जहा चेव पउमनाभस्स रण्णो पुव्वसंगतिएणं देवेणं दोबई देवी जाव [जंबुद्दीवाओ दीवाओ भारहाओ बासाओ हस्थिणाउराओ नयराओ जुहिट्टिलस्स रण्णो भवणाओ] संहरिया, तहा चेव दोवई देवि धायईसंडाओ दोवाओ भारहाओ [वासाओ अमरकंकाओ रायहाणीओ पउमनाभस्स रण्णो भवणाओ] जाव हत्थिणारं साहरामि ? उदाहु पउमनाभं रायं सपुरबलवाहणं लवणसमुद्दे पक्खिवामि ?' तत्पश्चात् सुस्थित देव ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा–'देवानुप्रिय ! जैसे पद्मनाभ राजा के पूर्व संगतिक देव ने द्रौपदी देवी का [जम्बूद्वीपवर्ती भरत क्षेत्र के हस्तिनापुर नगर से युधिष्ठिर राजा के भवन से] संहरण किया, उसी प्रकार क्या मैं द्रौपदी देवी को धातकी खंडद्वीप के भरत क्षेत्र से यावत् अमरकंका राजधानी में स्थित पद्मनाभ राजा के भवन से हस्तिनापुर ले जाऊँ ? अथवा पद्मनाभ राजा को उसके नगर, सैन्य और वाहनों के साथ लवणसमुद्र में फैंक दू?' १७७–तए णं कण्हे वासुदेवे सुत्थियं देवं एवं वयासी-'मा णं तुम देवाणुप्पिया! जाव साहराहि तुम णं देवाणुप्पिया ! लवणसमुद्दे अप्पछट्ठस्स छण्हं रहाणं मग्गं वियराहि, सयमेव णं अहं दोबईए देवीए कूवं गच्छामि / ' तब कृष्ण वासुदेव ने सुस्थित देव से कहा-'देवानुप्रिय ! तुम यावत् संहरण मत करो। देवानुप्रिय ! तुम तो पाँच पाण्डवों सहित छठे हमारे छह रथों को लवणसमुद्र में जाने का मार्ग दे दो। मैं स्वयं ही द्रौपदी देवी को वापिस लाने के लिए जाऊँगा।' १७८-तए णं से सुट्ठिए देवे कण्हं वासुदेवं एवं वयासो-'एवं होउ / ' पंचाह पंडवेहि सद्धि अप्पछट्ठस्स छण्हं रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं वियरइ। तब सुस्थित देव ने कृष्ण वासुदेव से कहा-'ऐसा ही हो तथास्तु / ' ऐसा कह कर उसने पाँच पाण्डवों सहित छठे वासुदेव के छह रथों को लवणसमुद्र में मार्ग प्रदान किया। पद्मनाभ के पास दूत-प्रेषण १७९-तए णं से कण्हे वासुदेवे चाउरंगिण सेणं पडिविसज्जेइ, पडिविसज्जित्ता पंचहि पंडवेहि द्धि अप्पछठे हि रहेहि लवणसमुई मज्झंमज्झेणं बीईवयइ, वीईवइत्ता जेणेब अमरकंका रायहाणी, जेणेव अमरकंकाए अग्गुज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रहं ठवेइ, ठवित्ता दारुयं साहिं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने चतुरंगिणी सेना को विदा करके पांच पाण्डवों के साथ छठे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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