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________________ 450 ] [ज्ञाताधर्मकथा तुम जानो और सान्नाहिक (सामरिक) भेरी बजायो / ' यह सुन कर कौटुम्बिक पुरुषों ने सामरिक भेरी बजाई। १७३--तए णं तीसे सण्णाहियाए भेरीए सई सोच्चा समुद्दविजयपामोक्खा दस दसारा जाव' छप्पण्णं बलक्यसाहस्सीओ सन्नद्धबद्ध जाव गहियाउहपहरणा अप्पेगइया हयगया जाव वग्गुरापरिक्खित्ता जेणेव सभा सुहम्मा, जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छति, उवाच्छित्ता करयल जाव वद्धाति / सान्नाहिक भेरी की ध्वनि सुन कर समुद्रविजय आदि दस दसार यावत् छप्पन हजार बलवान् योद्धा कवच पहन कर, तैयार होकर, आयुध और प्रहरण ग्रहण करके कोई-कोई घोड़ों पर सवार होकर, कोई हाथी आदि पर सवार होकर, सुभटों के समूह के साथ जहां कृष्ण वासुदेव की सुधर्मा सभा थी और जहां कृष्ण वासुदेव थे, वहाँ आये / पाकर हाथ जोड़ कर यावत् उनका अभिनन्दन किया। १७४-तए णं कण्हे वासुदेवे हत्थिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेयवरचामराहि वीइज्जमाणे महया हय-गय-रह-पवरजोहकलियाए चउरंगिणीए सेणाए सद्धि संपरिचुडे महया भडचडगरपहकरविंदपरिक्खित्ते बारवईए जयरीए मज्झंमज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छिता जेणेव पुरच्छिमवेयाली तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंचहि पंडवेहि सद्धि एगयओ मिलइ, मिलित्ता खंधावारणिवेसं करेइ, करित्ता पोसहसालं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता सुत्थियं देवं मणसि करेमाणे करेमाणे चिट्ठइ। तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर आरूढ़ हुए। कोरंट वृक्ष के फूलों की मालाओं से युक्त छत्र उनके मस्तक के ऊपर धारण किया गया। दोनों पावों में उत्तम श्वेत चामर ढोरे जाने लगे 1 वे बड़े-बड़े अश्वों, गजों, रथों और उत्तम पदाति-योद्धाओं की चतुरंगिणी सेना और अन्य सुभटों के समूहों से परिवत होकर द्वारका नगरी के मध्य भाग में होकर निकले / निकल कर जहां पूर्व दिशा का वेतालिक था, वहाँ पाए। वहाँ आकर पाँच पाण्डवों के साथ इकट्ठे हुए (मिले) फिर पड़ाव डाल कर पौषधशाला में प्रवेश किया। प्रवेश करके सुस्थित देव का मन में पुनः पुनः चिन्तन करते हुए स्थित हुए / कृष्ण द्वारा देव का आह्वान १७५-तए णं कण्हस्स वासुदेवस्स अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि सुट्टिओ जाव आगओ-'भण देवाणुप्पिया ! जं मए कायव्वं / ' तए णं से कण्हे वासुदेवे सुट्टियं देवं एवं वयासो-'एवं खलु देवाणुप्पिया ! दोवई देवी जाव पउमनाभस्स रण्णो भवर्णसि साहरिया, तंणं तुम देवाणुप्पिया! मम पंचहिं पंडवेहि सद्धि अप्पछलस्स छण्हं रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं वियरेहि / ज णं अहं अमरकंकारायहाणि दोवईए देवीए फूवं गच्छामि / ' तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव का अष्टमभक्त पूरा होने पर सुस्थित देव यावत् उनके समीप 1. प्र. 16 सूत्र 86, 2. प्र. 16 सूत्र 107 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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