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________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [453 निडाले साहटु एवं क्यासी--णो अपणामि णं अहं देवाणुप्पिया! काहस्स वासुदेवस्स दोवई, एस णं अहं सयमेव जुज्झसज्जो निग्गच्छामि, ति कटु दारुयं सारहिं एवं क्यासी– 'केवलं भो ! रायसत्थेसु दूए अवज्झे' त्ति कटु असक्कारिय असम्माणिय अवद्दारेणं णिच्छुभावेइ। तत्पश्चात् पद्मनाभ ने दारुक सारथी के इस प्रकार कहने पर नेत्र लाल करके और क्रोध से कपाल पर तीन सल वाली भृकुटी चढ़ा कर कहा -'देवानुप्रिय ! मैं कृष्ण वासुदेव को द्रौपदी वापिस नहीं दूंगा। मैं स्वयं ही युद्ध करने के लिए सज्ज होकर निकलता हूँ।' इस प्रकार कहकर फिर दारुक सारथी से कहा—'हे दूत ! राजनीति में दूत अवध्य है (केवल इसी कारण मैं तुझे नहीं मारता)।' इस प्रकार कह कर सत्कार-सन्मान न करके अपमान करके, पिछले द्वार से उसे निकाल दिया। १८३--तए णं से दारुए सारही पउमनाभेणं असक्कारिय जाव [असम्माणिय अवद्दारेणं] निच्छुढे समाणे जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं जाव कण्हं एवं वयासी-'एवं खलु अहं सामी ! तुम्भं वयणेणं जाव णिच्छुभावेइ / ' वह दारुक सारथि पद्मनाभ राजा के द्वारा असत्कृत हुआ, यावत् पिछले द्वार से निकाल दिया गया, तब कृष्ण वासुदेव के पास पहुंचा / पहुंच कर दोनों हाथ जोड़ कर कृष्ण वासुदेव से यावत् बोला-'स्वामिन् ! मैं आपके वचन (प्रादेश) से राजा पद्मनाभ के पास गया था, इत्यादि पूर्ववत्, यावत् उसने मुझे पिछले द्वार से निकाल दिया'—इत्यादि समग्र वृत्तान्त कहा।। पद्मनाभ-पाण्डव युद्ध १८४-तए णं से पउमणाभे बलवाउयं सद्दावेइ, सहावित्ता एवं वयासी—'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेह / ' तयाणंतरं च णं छेयायरिय-उवदेस-मइविकप्पणाविगप्पेहि जाव सुनिउणेहि उज्जलणेवस्थि-हत्थपरिवत्थियं सुसज्ज जाव आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेह पडिकप्पेत्ता] उवणेइ / तए णं से पउमनाहे सन्नद्ध जाव' अभिसेयं दुल्हइ, दुरूहिता हयगय' जेणेव कण्हे वासुदेवे तणेव पहारेत्थ गमणाए / कृष्ण वासुदेव के दूत को निकलवा देने के पश्चात् इधर पद्मनाभ राजा ने सेनापति को बुलाया और उससे कहा--'देवानुप्रिय ! अभिषेक किए हुए हस्तीरत्न को तैयार करके लायो।' यह आदेश सुनकर कुशल आचार्य के उपदेश से उत्पन्न हुई बुद्धि की कल्पना के विकल्पों (प्रकारों) से निपुण पुरुषों (महावतों) ने अभिषेक किया हुआ हस्ती उपस्थित किया / वह उज्ज्वल वेष से परिवत था, सुसज्जित था। तत्पश्चात् पद्मनाभ राजा कवच आदि धारण करके सज्जित हुआ, यावत् अभिषेक किये हाथी पर सवार हुा / सवार होकर अश्वों, हाथियों आदि की चतुरंगिणी सेना के साथ वहाँ जाने को उद्यत हुअा जहाँ वासुदेव कृष्ण थे। १८५--तए णं से कण्हे वासुदेवे पउमनाभं रायाणं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता ते पंच पंडवे एवं वयासी–'हं भो दारगा ! कि तुब्भे पउमनाभेणं सद्धि जुज्झिहिह उदाहु पेच्छिहिह ?' 1. अ. 16, सूत्र 107., 2. प. 16 सूत्र 174 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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