________________ परिशिष्ट-१] [ 565 ३-जह कुसुमाइविणासो, सिवमग्गविराहणा तहा नेया। जह दीववाउजोगे, बहु इड्ढी ईसि य अणिड्ढी / ४-तह साहम्मिय-वयणाण सहणमाराहणा भवे बहुया। __ इयराणमसहणे पुण, सिवमग्गविराहणा थोबा // ५-जह जलहि-वाउजोगे, थेविड्ढी बहुयरा यऽणिड्ढी य / तह परपक्ख-क्खमणे, आराहणमोसि बहु इयरं // ६-जह उभयवाउविरहे, सव्वा तरुसंपया विणटुत्ति / __ अणिमित्तोभयमच्छररूवेह विराहणा तह य॥ ७-"जह उभयवाउजोगे, सव्वसमिड्ढी वणस्स संजाया। तह उभयवयणसहणे, सिवमग्गाराहणा वुत्ता // ८-ता पुन्नसमणधम्माराहणचित्ती सया महासत्तो। सम्वेणवि कोरंति, सहेज्ज सव्वंपि पडिकलं // १--जैसे दावद्दव जाति के वृक्ष कहे गए हैं, वैसे यहाँ साधु समझना चाहिए / जैसे द्वीप सम्बन्धी वायु है, वैसे यहाँ श्रमण आदि (श्रमणी, श्रावक, श्राविका) रूप स्वपक्ष के दुस्सह वचन जानने चाहिए। २-जैसे सामुद्रिक पवन है वैसे यहाँ अन्यतीथिकों के कटुक वचन आदि जानना / वृक्षों में पुष्प आदि सम्पत्ति के समान यहाँ मोक्षमार्ग की आराधना समझना / ३-पुष्प आदि समृद्धि के अभाव को यहाँ मोक्षमार्ग की विराधना जान लेना चाहिए। जैसे द्वीप सम्बन्धी वायु के सद्भाव में अधिक समृद्धि और थोड़ी असमृद्धि होती है ४-उसी प्रकार सार्मिकों के दुर्वचनों को सहन करने से बहुत आराधना होती है, किन्तु अन्ययूथिकों के दुर्वचनों को सहन न करने से मोक्षमार्ग की किचित् विराधना भी होती है। ५-जैसे सामुद्रिक वायु का संयोग मिलने पर किंचत् समृद्धि और बहुतर असमृद्धि होती है, उसी प्रकार परपक्ष (अन्ययूथिकों) के वचन सहन करने से थोड़ी अाराधना होती है, (स्वयूथ्यों के वचन न सहने से) विराधना अधिक होती है। ६-जैसे दोनों द्वैपिक और सामुद्रिक प्रकार के पवन के अभाव में समस्त तरु-सम्पदा (पत्र-पुष्प-फल आदि) का विनाश हो जाता है, वैसे ही निष्कारण दोनों के प्रति मत्सरता होना यहाँ विराधना है। ७-जैसे दोनों प्रकार के पवन का योग प्राप्त होने पर वन-वृक्षसमूह को सर्व प्रकार की पूर्ण समृद्धि प्राप्त होती है / उसी प्रकार दोनों पक्षों (स्वयूथिकों, अन्ययूथिकों) के दुर्वचनों को सहन करने से मोक्षमार्ग की पूर्ण आराधना कही गई है। 8 अतएव जिसके चित्त में पूर्ण श्रमणधर्म की आराधना करने की अभिलाषा है, वह सभी प्रकार के मनुष्यों द्वारा किए जाने वाले प्रतिकूल व्यवहार-वचनप्रयोग, उपसर्ग आदि को सहन करे / बारहवां अध्ययन १–मिच्छत्तमोहियमणा पावपसत्तावि पाणिणो विगुणा / फरिहोदगं व गुणिणो हवंति वरगुरुप्पसायाओ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org