________________ [ 23 प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] राजा के मुख्य महल के द्वार के भीतर प्रवेश किया। प्रवेश करके जहाँ बाहरी उपस्थानशाला थी और जहाँ श्रेणिक राजा था, वहाँ आये। आकर श्रेणिक राजा को जय और विजय शब्दों से वधाया / श्रेणिक राजा ने चन्दनादि से उनकी अर्चना की, गुणों की प्रशंसा करके वन्दन किया, पुष्पों द्वारा पूजा की, आदरपूर्ण दृष्टि से देख कर एवं नमस्कार करके मान किया, फल-वस्त्र आदि देकर सत्कार किया और अनेक प्रकार की भक्ति करके सम्मान किया। फिर वे स्वप्नपाठक पहले से बिछाए हुए भद्रासनों पर अलग-अलग बैठे। ३४-तए णं सेणिए राया जवणियंतरियं धारिणि देवि ठवेइ, ठवेत्ता पुप्फ-फल-पडिपुण्णहत्थे परेणं विणएणं ते सुमिणपाढए एवं वयासी–एवं खलु देवाणुप्पिया ! धारिणी देवी अज्ज तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि जाव' महासुमिणं पासित्ता णं पडिबुद्धा। तं एयस्स णं देवाणुप्यिा! उरालस्स जावसस्सिरीयस्स महासुमिणस्स के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ ? तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने जवनिका के पीछे धारिणी देवी को बिठलाया / फिर हाथों में और फल लेकर अत्यन्त विनय के साथ उन स्वप्नपाठकों से इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो ! आज उस प्रकार की उस (पूर्ववणित) शय्या पर सोई हई धारिणी देवी यावत महास्वप्न देखकर जागी है। तो देवानुप्रियो ! इस उदार यावत् सश्रीक महास्वप्न का क्या कल्याणकारी फलविशेष होगा? स्वप्नपाठकों द्वारा फलादेश 35. तए णं ते सुमिणपाढगा सेणियस्स रण्णो अंतिए एयमझें सोच्चा णिसम्म हट्ठ जाव' हियया तं सुमिणं सम्म ओगिण्हति / ओगिहित्ता ईहं अणुमविसंति, अणुपविसित्ता अन्नमन्नेणं सद्धि संचालेंति, संचालित्ता तस्स सुमिणस्स लद्धट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा अभिगयट्ठा सेणियस्स रण्णो पुरओ सुमिणसत्थाई उच्चारेमाणा उच्चारेमाणा एवं वयासी तत्पश्चात् वे स्वप्नपाठक श्रेणिक राजा का यह कथन सुनकर और हृदय में धारण करके हृष्ट, तुष्ट, पानन्दितहृदय हुए। उन्होंने उस स्वप्न का सम्यक् प्रकार से अवग्रहण किया। अवग्रहण करके ईहा (विचारणा) में प्रवेश किया, प्रवेश करके परस्पर एक-दूसरे के साथ विचार-विमर्श किया। विचार-विमर्श करके स्वप्न का अपने आपसे अर्थ समझा, दूसरों काअभिप्राय जानकार विशेष अर्थ समझा, आपस में उस अर्थ की पूछताछ की, अर्थ का निश्चय किया और फिर तथ्य अर्थ का (अन्तिम रूप से) निश्चय किया / वे स्वप्नपाठक श्रेणिक राजा के सामने स्वप्नशास्त्रों का बार-बार उच्चारण करते हुए इस प्रकार बोले ३६–एवं खलु अम्हं सामी ! सुमिणसत्थंसि बायालीसं सुमिणा, तीसं महासुमिणा बावरि सव्वसुमिणा दिट्ठा / तत्थं णं सामी ! अरहतमायरो वा, चक्कट्टिमायरो वा अरहंतसि वा चक्कवदिसि वा गम्भं वक्कममाणंसि एएसि तीसाए महासुमिणाणं इमे चोद्दस महासुमिणे पासित्ता गं पडिबुज्झन्तितंजहा - गय-उसभ-सीह-अभिसेय-दाम-ससि-दिणयरं झयं कुभं। पउमसर-सागर-विमाण --भवण-रयणुच्चय-सिहि च // १-२.प्र. अ. मूत्र 21 3, प्र. अ. सूत्र 20 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org