________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [425 शिविका पर, स्यंदमाणी-म्याने पर सवार होकर और कोई-कोई पैदल चल कर जहाँ कृष्ण वासुदेव थे, वहाँ पहुँचे / पहुँचकर दोनों हाथ जोड़ कर सबने कृष्ण वासुदेव का जय-विजय के शब्दों से अभिनन्दन किया। ९३-तए णं से कण्हे वासुदेवे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेह, हयगय जाव [रह-पवरजोहकलियं चउरंगिणि सेनं सण्णाहेह सण्णाहेत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह / ते वि तहेव] पच्चप्पिणंति / तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही पट्टाभिषेक किये हुए हस्तीरत्न (सर्वोत्तम हाथी) को तैयार करो तथा घोड़ों हाथियों [रथों और उत्तम पदातियों की चतुरंगिणी सेना सज्जित करके मेरी आज्ञा वापिस सौंपो। यह अाज्ञा सुन कर कौटुम्बिक पुरुषों ने तदनुसार कार्य करके प्राज्ञा वापिस सौंपी / ९४--तए णं से कण्हे वासुदेवे जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समुत्तजाला; कुलाभिरामे जाव (विचित्तमणि-रयणकुट्टिमतले रमणिज्जे ण्हाणमंडवंसि जाणामणि-रयणभत्तिचित्तंसि ण्हाणपीढंसि सुहणिसण्णे सुहोदएहिं गंधोदह पुप्फोदएहि सुद्धोदएहि पुणो पुणो कल्लाणग-पवरमज्जणविहीए मज्जिए) अंजणगिरिकूडसंनिभं गयवई नरवई दुरूढे। तए णं से कण्हे वासुदेवे समुद्दविजयपामुक्खेहि दहि दसारेहिं जाव' अणंगसेणापामुक्खेहि अणेगाहि गणियासाहस्सोहि सद्धि संपरिबुडे सब्बिड्डीए जाव रवेणं वारवई नरि मझमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता सुरद्वाजणवयस्स मज्झमझेणं जेणेव देसप्पंते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता पंचालजणवयस्स मज्झंमज्झेणं जेणेव कंपिल्लपुरे नयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव मज्जनगृह (स्नानागार) में गये / मोतियों के गुच्छों से मनोहर [तथा चित्र-विचित्र मणियों और रत्नों के फर्शवाले मनोरम स्नानगृह में, अनेक प्रकार की मणियों और रत्नों की रचना के कारण अद्भुत स्नानपीठ (स्नान करने के पीढ़े) पर सुखपूर्वक आसीन हुए। तत्पश्चात् शुभ अथवा सुखजनक जल से, सुगंधित जल से तथा पुष्प-सौरभयुक्त जल से बार-बार उत्तम मांगलिक विधि से स्नान किया,] स्नान करके विभूषित होकर यावत् अंजनगिरि के शिखर के समान (श्याम और ऊँचे) गजपति पर वे नरपति प्रारूढ हुए। तत्पश्चात कृष्ण वासुदेव समुद्रविजय प्रादि दस दसारों के साथ यावत् अनंगसेना आदि कई हजार गणिकाओं के साथ परिवृत होकर, पूरे ठाठ के साथ यावत् वाद्यों की ध्वनि के साथ द्वारवती नगरी के मध्य में होकर निकले / निकल कर सुराष्ट्र जनपद के मध्य में होकर देश की सीमा पर पहुँचे। वहाँ पहुँच कर पंचाल जनपद के मध्य में होकर जिस ओर कांपिल्यपुर नगर था, उसी प्रोर जाने के लिए उद्यत हुए। हस्तिनापुर को दूतप्रेषण ९५-तए णं से दुवए राया दोच्चं दूयं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी----'गच्छ णं तुमं 1. प्र. 16 सूत्र 86 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org