________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] [ 29 के निर्मल दंड वाले एवं शंख, कुन्दपुष्प, जलकण और अमृत का मंथन करने से उत्पन्न हुए फेन के समूह के समान उज्ज्वल, श्वेत चार चामर जिनके ऊपर ढोरे जा रहे हैं, जो हस्ती-रत्न के स्कंध पर (महावत के रूप में) राजा श्रेणिक के साथ बैठी हों। उनके पीछे-पीछे चतुरंगिणी सेना चल रही हो, अर्थात् विशाल अश्वसेना, गजसेना, रथसेना और पैदलसेना हो। छत्र आदि राजचिह्नों रूप समस्त ऋद्धि के साथ, आभूषणों आदि की कान्ति के साथ, यावत् [समस्त बल, समुदाय, आदर, विभूति, विभूषा एवं संभ्रम के साथ, समस्त प्रकार के पुष्पों के सौरभ, मालाओं और अलंकारों के साथ, समस्त वाद्यों के शब्दों की ध्वनि के साथ, महान ऋद्धि, द्युति, बल तथा समुदाय के साथ, एक ही साथ बजाए जाते हुए वाद्यों के शब्दों के साथ, शंख, पणव, पटह भेरी, झालर, खरमुखी, हुडुक्क, मुरज, मृदंग एवं दुदुभि वाद्यों के निर्घोष-शब्द के साथ, राजगृह नगर के शृगाटक (सिंघाड़े के आकार के मार्ग) त्रिक (जहाँ तीन मार्ग मिले), चतुष्क, (चौक), चत्वर (चबूतरा), चतुर्मुख (चारों ओर द्वार वाले देवकुल आदि), महापथ (राजमार्ग) तथा सामान्य मार्ग में गंधोदक एक बार छिड़का हो, अनेक बार छिड़का हो, शृगाटक आदि को शुचि किया हो, झाड़ा हो, गोबर आदि से लीपा हो, यावत् पाँच वर्षों के ताजा सुगंधमय बिखरे हुए पुष्पों के समूह के उपचार से युक्त किया हो, काले अगर, श्रेष्ठ कुदरु, लोभान तथा धूप को जलाने से फैली हुई सुगंध से मघमघा रहा हो, उत्तम चूर्ण के गंध से सुगंधित किया हो और मानो गंधद्रव्यों की गुटिका ही हो, ऐसे राजगृह नगर को देखती जा रही हो / नागरिक जन अभिनन्दन कर रहे हों। गुच्छों, लताओं, वृक्षों, गुल्मों (झाड़ियों) एवं वेलों के समूहों से व्याप्त, मनोहर वैभारपर्वत के निचले भागों के समीप, चारों ओर सर्वत्र भ्रमण करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करतो हैं (वे माताएँ धन्य हैं।) तो मैं भी इस प्रकार मेघों का उदय आदि होने पर अपने दोहद को पूर्ण करना चाहती हूँ। धारिणी की चिन्ता ४५–तए णं सा धारिणी देवी तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि असंपन्नदोहला असंपुन्नदोहला असंमाणियदोहला सुक्का भुक्खा जिम्मंसा ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा पमइलदुब्बला किलंता ओमंथियवयण-नयणकमला पंडुइयमुही करयलमलिय व्व चंपगमाला णित्तेया दोणविवण्णवयणा जहोचियपुप्फ-गंध-मल्लालंकार-हारं अणभिलसमाणी कोडारमणकिरियं च परिहावेमाणी दोणा दुम्मणा निराणंदा भूमिगयदिट्ठीया ओहयमणसंकप्पा जाव झियायइ। तत्पश्चात् वह धारिणी देवी उस दोहद के पूर्ण न होने के कारण, दोहद के सम्पन्न न होने के कारण, दोहद के सम्पूर्ण न होने के कारण, मेघ आदि का अनुभव न होने से दोहद सम्मानित न होने के कारण, मानसिक संताप द्वारा रक्त का शोषण हो जाने से शुष्क हो गई / भूख से व्याप्त हो गई। मांस रहित हो गई। जीर्ण एवं जीर्ण शरीर वाली, स्नान का त्याग करने से मलीन शरीर वाली, भोजन त्याग देने से दुबली तथा श्रान्त हो गई। उसने मुख और नयन रूपी कमल नीचे कर लिए, उसका मुख फीका पड़ गया / हथेलियों से मसली हुई चम्पक-पुष्पों की माला के समान निस्तेज हो गई / उसका मुख दीन और विवर्ण हो गया, यथोचित पुष्प, गंध, माला, अलंकार और हार के विषय में रुचिरहित हो गई, अर्थात् उसने इन सबका त्याग कर दिया / जल आदि की क्रीडा और चौपड़ आदि खेलों का परित्याग कर दिया / वह दीन, दुःखी मन वाली, आनन्दहीन एवं भूमि की तरफ दृष्टि किये हुए बैठी रही। उसके मन का संकल्प-हौंसला नष्ट हो गया। वह यावत् - प्रार्तध्यान में डूब गई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org