________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [401 समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उड्ढं सोहम्म जाय सव्वदृसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववन्ने / तत्थ णं अजहण्णमणुक्कोसं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। तत्थ धम्मरुइस्स वि देवस्स तेत्तीसं सागरोबमाई ठिई पण्णता। से गं धम्मरुई देवे ताओ देवलोगाओ जाव [आउक्खएणं ठिइक्खएणं भवक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता] महाविदेहे वासे सिन्झिहिइ / धर्मरुचि अनगार बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्याय पाल कर, आलोचना-प्रतिक्रमण करके समाधि में लीन होकर काल-मास में काल करके, ऊपर सौधर्म आदि देवलोकों को लांघ कर, यावत् सर्वार्थसिद्ध नामक महाविमान में देवरूप से उत्पन्न हुए हैं / वहाँ जघन्य-उत्कृष्ट भेद से रहित एक ही समान सब देवों की तेतीस सागरोपम की स्थिति कही गई है। धर्मरुचि देव की भी तेतीस सागरोपम की स्थिति हुई / वह धर्मरुचि देव उस सर्वार्थसिद्ध देवलोक से आयु, स्थिति और भव का क्षय होने पर च्युत होकर सीधे महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्धि प्राप्त करेगा। २४-'तं धिरत्थु णं अज्जो ! णागसिरीए माहणीए अधन्नाए अपुन्नाए जाव णिबोलियाए, जाए णं तहारूवे साहू धम्मरुई अणगारे मासखमणपारणगंसि सालइएणं जाव गाढणं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविए।' 'तो हे आर्यो ! उस अधन्य अपुग्य, यावत् निबोली के समान कटुक नागश्री ब्राह्मणी को धिक्कार है, जिसने तथारूप साधु धर्मरुचि अनगार को मासखमण के पारणक में शरद् संबंधी यावत् तेल से व्यप्त कटुक, विषाक्त तुबे का शाक देकर असमय में ही मार डाला / ' २५-तए णं ते समणा निग्गंथा धम्मघोसाणं थेराणं अंतिए एयमट सोच्चा णिसम्म चंपाए सिंघाडग-तिग जाव [चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु] बहुजणस्स एवमाइक्खंति-धिरत्थु णं देवाणुपिया! नागसिरोए माहणीए जाव णिबोलियाए, जाए णं तहारूवे साहू साहुरूवे सालइएणं जीवियाओ ववरोविए।' तत्पश्चात् उन निर्ग्रन्थ श्रमणों ने धर्मघोष स्थविर के पास से यह वृत्तान्त सुनकर अोर समझ कर चम्पानगरी के शृगाटक, त्रिक, चौक, चत्वर, चतुर्मुख राजमार्ग, गली आदि मार्गों में जाकर यावत् बहुत लोगों से इस प्रकार कहा-'धिक्कार है उस यावत् निंबोली के समान कटुक नागश्री ब्राह्मणी को; जिसने उस प्रकार के साधु और साधु रूप धारी मासखमण का तप करने वाले धर्मरुचि नामक अनगार को शरद संबंधी यावत् विष सद्दश कटुक शाक देकर मार डाला।' २६-तए णं तेसि समणाणं अंतिए एयमझें सोच्चा णिसम्म बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ, एवं भासइ--'धिरत्थु णं नागसिरीए माहणीए जाव जीवियाओ ववरोविए।' तब उस श्रमणों से इस वृत्तान्त को सुन कर और समझ कर बहुत-से लोग आपस में इस प्रकार कहने लगे और बातचीत करने लगे-'धिक्कार है उस नागश्रो ब्राह्मणी को, जिसने यावत् मुनि को मार डाला / ' नागश्री की दुर्दशा २७---तए णं ते माहणा चंपाए नयरीए बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म आसुरुत्ता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org