________________ 368 ] [ ज्ञाताधर्मकथा __इस वर्णन से स्पष्ट है कि भिक्षार्थ गमन करने से पूर्व साधु-साध्वी को वस्त्र-पात्रादि का प्रतिलेखन-प्रमार्जन करना आवश्यक है, वे जिसको निश्रा (नेसराय) में हों, उनकी प्राज्ञा प्राप्त करनी चाहिए तथा शीघ्र भिक्षाप्राप्ति के विचार से त्वरा या चपलता नहीं करनी चाहिए / भिक्षा के लिए धनी, निर्धन एवं मध्यम वर्ग के घरों में जाना चाहिए / भिक्षा का आगमोक्त समय तृतीय प्रहर है, यह भी इससे स्पष्ट हो जाता है, फिर भी इस विषय में देश-काल का विचार रखना चाहिए। ३०–एवं खलु अहं अज्जाओ! तेयलिपुत्तस्स पुग्वि इट्टा कंता पिया मणुण्णा मणामा आसि, इयाणि अणिट्ठा अप्पिया, अकंता अमणुण्णा अमणामा जाया / नेच्छइ णं तेर्यालपुत्ते मम नामगोयमवि सवणयाए, कि पुण दंसणं वा परिभोगं वा ? तं तुम्भे गं अज्जाओ सिक्खियाओ, बहुनायाओ, बहुपढियाओ, बहूणि गामागर जाव आहिंडह, राईसर जाव गिहाई अणुपविसह, तं अस्थि याइं भे अज्जाओ? केइ कहिंचि चुन्नजोए वा, मंतजोगे वा, कम्मणजोए वा, हियउड्डावणे वा, काउड्डावणे वा आभिओगिए वा, वसीकरणे वा, कोउयकम्मे वा, भूइकम्मे वा, मूले कंदे छल्ली वल्ली सिलिया वा, गुलिया वा, ओसहे वा, भेसज्जे वा उवलद्धपुग्वे जेणाहं तेलिपुत्तस्स पुणरवि इट्ठा भवेज्जामि। 'हे पार्यायो ! मैं पहले तेतलिपुत्र की इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मणाम-मनगमती थी, किन्तु अब अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय. अमनोज्ञ, अमणाम हो गई हूँ / तेतलिपुत्र मेरा नाम-गोत्र भी सुनना नहीं चाहते, दर्शन और परिभोग की तो बात ही दूर ! हे पार्यायो ! तुम शिक्षित हो, बहुत जानकार हो, बहुत पढ़ी हो, बहुत-से नगरों और ग्राम में यावत् भ्रमण करती हो, राजारों और ईश्वरों-युवराजों आदि के घरों में प्रवेश करती हो तो हे आर्यायो ! तुम्हारे पास कोई चूर्णयोग, (स्तंभन अादि करने वाला) मंत्रयोग, कामणयोग, हृदयोड्डायन-हृदय को हरण करने वाला, काया का आकर्षण करने वाला, आभियोगिक-पराभव करने वाला, वशीकरण, कौतुककर्म-सौभाग्य प्रदान करने वाला स्नान आदि, भूतिकर्म-मंत्रित की हुई भभूत का प्रयोग अथवा कोई सेल, कंद, छाल, वेल, शिलिका (एक प्रकार का घास), गोली, औषध या भेषज ऐसी है, जो पहले जानी हुई हा? जिससे मैं फिर तेतलिपुत्र की इष्ट हो सकू?' ३१–तए णं ताओ अज्जाओ पोट्टिलाए एवं वुत्ताओ समाणीओ दो वि कन्ने ठाइंति, ठाइता पोटिलं एवं वयासी-'अम्हे णं देवाणुप्पिया ! समणीओ निगंथीओ जाव' गुत्तबंभचारिणीओ, नो खलु कप्पइ अम्हं एयप्पयारं कन्नेहि वि निसामेत्तए, किमंग पुण उदिसित्तए वा, आयरित्तए वा? अम्हे णं तव देवाणुप्पिया ! विचित्तं केवलिपन्नत्तं धम्म परिकहिज्जामो।' पोट्टिला के द्वारा इस प्रकार कहने पर उन आर्यानों ने अपने दोनों कान बन्द कर लिये / कान बन्द करके उन्होंने पोट्टिला से कहा---'देवानुप्रिये ! हम निर्ग्रन्थ श्रमणियाँ हैं, यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणियाँ हैं / अतएव ऐसे वचन हमें कानों से श्रवण करना भी नहीं कल्पता तो इस विषय का उपदेश देना या आचरण करना तो कल्प हो कैसे सकता है ? हाँ, देवानुप्रिये ! हम तुम्हें अद्भुत या अनेक प्रकार के केवलिप्ररूपित धर्म का भलीभाँति उपदेश दे सकती हैं।' 1. अ. 14 सूत्र 28 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org