________________ नवम अध्ययन : माकन्दी ] [ 305 ५८–तए णं सा रयणदीवदेवया निस्संसा कलुणं जिणरक्खियं सकलुसा सेलगपिट्ठाहि उवयंतं 'दास ! मओसि' त्ति जंपमाणी, अप्पत्तं सागरसलिलं, गेण्हिय बाहाहि आरसंतं उड्ढं उविहइ अंबरतले, ओवयमाणं च मंडलग्गेण पडिच्छित्ता नीलुप्पल-गवल-अयसिप्पगासेण असिवरेणं खंडाखंडि करेइ, करित्ता तत्थ विलवमाणं तस्स य सरसवाहियस्स घेत्तूण अंगमंगाई सरुहिराई उक्खित्तबलि चउद्दिसि करेइ सा पंजली पहिट्ठा। / तत्पश्चात् उस निर्दय और पापिनी रत्नद्वीप की देवी ने दयनीय जिनरक्षित को शैलक की पीठ से गिरता देख कर कहा-'रे दास ! तू मरा।' इस प्रकार कह कर, समुद्र के जल तक पहुंचने से पहले ही, दोनों हाथों से पकड़ कर, चिल्लाते हुए जिन रक्षित को ऊपर उछाला। जब वह नीचे की ओर आने लगा तो उसे तलवार की नोक पर झेल लिया / नील कमल, भैस के सींग और अलसी के फूल के समान श्याम रंग की श्रेष्ठ तलवार से विलाप करते हुए उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। टुकड़े-टुकड़े करके अभिमान-रस से वध किये हुए जिनरक्षित के रुधिर से व्याप्त अंगोपागों को ग्रहण करके, दोनों हाथों की अंजलि करके, हर्षित होकर उसने उत्क्षिप्त-बलि अर्थात् देवता को उद्देश्य करके आकाश में फैकी हुई बलि की तरह, चारों दिशाओं को बलिदान किया। ५९--एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निगंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए पव्वइए समाणे पुणरवि माणुस्सए कामभोगे आसायइ, पत्थयइ, पोहेइ, अभिलसइ, से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं. सावियाणं जाव' संसारं अणुपरियट्टिस्सइ, जहा वा से जिणरक्खिए। छलिओ अवयक्खंतो, निरावयक्खो गओ अविग्घेणं / तम्हा पक्यणसारे, निरावयक्षेण भवियव्वं // 1 // भोगे अवयक्खंता, पडंति संसार-सायरे घोरे। भोगेहि निरवयक्खा, तरंति संसारकंतारं // 2 // इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! जो हमारे निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी प्राचार्य-उपाध्याय के समीप प्रवजित होकर, फिर से मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों का आश्रय लेता है, याचना करता है, स्पृहा करता है अर्थात् कोई बिना मांगे कामभोग के पदार्थ दे दे, ऐसी अभिलाषा करता है, या दृष्ट अथवा अदृष्ट शब्दादिक के भोग की इच्छा करता है, वह मनुष्य इसी भव में बहुत-से साधुओं, बहुतसी साध्वियों, बहुत-से श्रावकों और बहुत-सी श्राविकाओं द्वारा निन्दनीय होता है, यावत् अनन्त संसार में परिभ्रमण करता है / उसकी दशा जिनरक्षित जैसी होती है। पीछे देखने वाला जिनरक्षित छला गया और पीछे नहीं देखने वाला जिनपाल निर्विघ्न अपने स्थान पर पहुँच गया। अतएव प्रवचनसार (चारित्र) में आसक्तिरहित होना चाहिए, अर्थात् चारित्रवान् को अनासक्त रह कर चारित्र का पालन करना चाहिए / / 1 / / 1. तृतीय श्र. सूत्र 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org