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________________ दशम अध्ययन : चन्द्र सार संक्षेप प्रस्तुत अध्ययन में कोई कथा-प्रसंग वणित नहीं है, केवल चन्द्रिका के ज्ञात-उदाहरण से जीवों के विकास और ह्रास का अथवा उत्थान और पतन का बोध कराया गया है। राजगृह नगर भगवान् महावीर की पावन चरण-रज से अनेकों बार पवित्र हुआ। एक बार गौतम स्वामी ने भगवान् के वहाँ पदार्पण करने पर प्रश्न किया 'कहाणं भंते ! जीवा वड्ढंति हायति वा ?' —'भंते ! जीव किस कारण से वृद्धि अथवा हानि को प्राप्त होते हैं ?' भगवान् ने सामान्य जनों को भी हृदयंगम हो सके, ऐसी पद्धति अपना कर चन्द्र--- चन्द्र की वद्धि-हानि का उदाहरण देकर इस प्रश्न का उत्तर दिया। कहा---'गौतम ! जैसे कृष्णपक्ष की प्रतिपदा का चन्द्रमा, पूर्णिमा के चन्द्रमा की अपेक्षा वर्ण, सौम्यता, स्निग्धता, कान्ति, दीप्ति, प्रभा, लेश्या और मंडल की दष्टि से हीन होता है, और फिर द्वितीय, तृतीया आदि तिथियों में हीनतर-हीनतर ही होता चला जाता है। पक्ष के अन्त में अमावस्या के दिन पूर्ण रूप से विलीन-नष्ट-गायब हो जाता है। इसी प्रकार जो अनगार आचार्य या उपाध्याय के निकट गृहत्याग कर अकिंचन अनगार बनता है, वह यदि क्षमा, मार्दव, आर्जव, ब्रह्मचर्य प्रभृति मुनिधर्मों से हीन हो जाता है और फिर होनतर-हीनतर ही होता चला जाता है-अनुक्रम से पतन की ओर ही बढ़ता जाता है तब अन्त में वह अमावस्या के चन्द्र के समान पूर्ण रूप से नष्ट हो जाता है। विकास अथवा वृद्धि का कारण ठीक इससे विपरीत होता है / जैसे शुक्लपक्ष की प्रतिपद का चन्द्र, अमावस्या के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण, कान्ति, प्रभा, सौम्यता स्निग्धता आदि की दृष्टि से अधिक होता है और फिर द्वितीय, तृतीया आदि तिथियों में अनुक्रम से बढ़ता जाता है। पूर्णिमा के दिन अपनी समग्र कलाओं से उद्भासित हो जाता है, मण्डल से भी परिपूर्णता प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार जो साधु प्रव्रज्या अंगीकार करके क्षमा, मृदुता, ऋजुता, ब्रह्मचर्य प्रादि गुणों का क्रम से विकास करता जाता है, वह अन्त में पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति सम्पूर्ण प्रकाशमय बन जाता है, उसको अनन्त ज्योति प्रकट हो जाती है। अध्ययन संक्षिप्त है किन्तु इसमें निहित भाव बहुत गूढ है। श्री गौतम ने सामान्य रूप से जोवों के ह्रास और विकास के विषय में प्रश्न किया है, परन्तु भगवान् ने साधुओं को प्रधान रूप से लक्ष्य करके उत्तर दिया है ! मुनिपरिषद् में जो प्रश्नोत्तर हों उनमें ऐसा होना स्वाभाविक है, इसमें कोई अनौचित्य नहीं / आगम सूत्ररूप हैं किन्तु उनका अर्थ बहुत विशाल होता है। अतएव साधूनों को लक्ष्य करके यहाँ जो कुछ भी कहा गया है, वह गृहस्थों पर भी लागू होता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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