________________ पञ्चम अध्ययन : शलक] [ 185 मणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव मंडुयस्स जाणसाला तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता फासुयं पीढ (फलग-सज्जा-संथारयं) जाव (ओगिण्हित्ता) विहरइ / तत्पश्चात् शैलक अनगार ने मंडुक राजा के इस अर्थ को (विज्ञप्ति को) 'ठीक है' ऐसा कहकर स्वीकार किया और राजा वन्दना-नमस्कार करके जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया। तत्पश्चात् वह शैलक राजर्षि कल (दूसरे दिन) प्रभात होने पर, सूर्योदय हो जाने के पश्चात् सहस्ररश्मि सूर्य के देदीप्यमान होने पर भंडमात्र (पात्र) और उपकरण लेकर पंथक प्रभृति पाँच सौ मुनियों के साथ शैलकपुर में प्रविष्ट हुए। प्रवेश करके जहाँ मंडुक राजा को यानशाला थी, उधर आये / आकर प्रासुक पीठ फलक शय्या संस्तारक ग्रहण करके विचरने लगे। ६२--तए णं मंडुए राया चिगिच्छए सद्दावेइ, सद्दाविता एवं वयासो-'तुम्भे गं देवाणुप्पिया ! सेलयस्स फासुय-एसणिज्जेणं जाव (ओसह-भेसज-भत्त-पाणण) तेगिच्छं आउटेह।' तए णं तेगिच्छया मंडुएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठा सेलयस्य रायरिसिस्स अहापवितहि ओसहभेसज्जभत्तपाहि तेगिच्छं आउटेति / मज्जपाणयं च से उवदिसंति। तए णं तस्स सेलयस्स अहापवित्तेहि जाव मज्जपाणेणं रोगायके उवसंते होत्था, हठे जाव बलियसरीरे (गलियसरीरे) जाए ववगयरोगायंके / तत्पश्चात् मंडुक राजा ने चिकित्सकों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा-'देवानुप्रियो ! तुम शैलक राजर्षि की प्रासुक और एषणीय औषध, भेषज एवं भोजन-पान से चिकित्सा करो।' तब चिकित्सक मंडुक राजा के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुए। उन्होंने साधु के योग्य औषध, भेषज एवं भोजन-पान से चिकित्सा को और मद्यपान करने की सलाह दी। / तत्पश्चात् साधु के योग्य औषध, भेषज, भोजन-पान से तथा मद्यपान करने से शैलक राजर्षि का रोग-अातंक शान्त हो गया। वह हृष्ट-पुष्ट यावत् बलवान् शरीर वाले हो गये। उनके रोगातंक पूरी तरह दूर हो गए। शैलक को शिथिलता ६३-तए णं से सेलए तंसि रोगायकसि उवसंतंसि समाणंसि, तंसि विपुलंसि असण-पाणखाइम-साइमंसि मज्जपाणए य मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववन्ने ओसन्ने ओसन्नविहारी एवं पासत्ये पासत्थविहारी, कुसीले कुसीलविहारी, पमत्ते पमत्तविहारी, संसत्ते संसत्तविहारी, उउबद्धपोढ-फलगसेज्जा-संथारए पिमत्ते यावि विहरइ। नो संचाएइ फासूयं एसणिज्जं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारयं पच्चप्पिणित्ता मंडुयं च रायं आपुच्छित्ता बहिया जणवयविहारं विहरित्तए। तत्पश्चात् शैलक राजर्षि उस रोगातंक के उपशान्त हो जाने पर विपुल प्रशन, पान, खादिम और स्वादिम में तथा मद्यपान में मूछित, मत्त, गृद्ध और अत्यन्त आसक्त हो गये / वह अवसन्नपालसी अर्थात् आवश्यक आदि क्रियाएं सम्यक् प्रकार से न करने वाले, अवसन्नविहारी अर्थात् लगातार बहुत दिनों तक आलस्यमय जीवन यापन करने वाले हो गए / इसी प्रकार पार्श्वस्थ (ज्ञानदर्शन-चारित्र को एक किनारे रख देने वाले) तथा पार्श्वस्थविहारी अर्थात् बहुत समय तक ज्ञानादि For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org