________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट ] [ 115 तए णं सा भद्दा सत्थवाही अन्नया कयाइ केणइ कालंतरेणं आवन्नसत्ता जाया यावि होत्था / तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन विपुल प्रशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन तैयार करती / तैयार करके बहुत से नाग यावत् वैश्रमण देवों की मनौती करतो-भोग चढ़ाती थी और उन्हें नमस्कार किया करती थी। तत्पश्चात् वह भद्रा सार्थवाही कुछ समय व्यतीत हो जाने पर एकदा कदाचित् गर्भवती हो गई। १७–तए णं तोसे भद्दाए सत्थवाहीए दोसु मासेसु वीइक्कतेसु तइए मासे वट्टमाणे इमेयारूवे दोहले पाउन्भूए-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव' कयलक्खणाओ णं ताओ अम्मयाओ, जाओ पं विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं सुबहुयं पुप्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारं गहाय मित्त-नाइ-नियग-सयणसंबंधि-परियण-महिलियाहि य सद्धि संपरिवुडाओ रायगिहं नगरं मज्झमझेण निग्गच्छति / निग्गच्छित्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता पोक्खरिणि ओगाहिति, ओगाहित्ता पहायाओ कयबलिकम्माओ सव्वालंकारविभूसियाओ विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं आसाएमाणोओ जाव (विसाएमाणीओ परिभाएमाणीओ) पडिजेमाणीओ दोहलं विन्ति / एवं संपेहेह, संपेहित्ता कल्लं जाव' जलते जेणेव धणे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता धणं सत्यवाहं एवं वयासी--‘एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम तस्स गन्भस्स जाव (दोसु मासेसु वीइक्कतेसु तइए मासे वट्टमाणे इमेयारूवे दोहले पाउन्भूए-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव दोहलं) विर्णन्ति; तं इच्छामि णं देवाणुपिया ! तुहि अब्भणुन्नाया समाणी जाव विहरित्तए। 'अहासुहं देवाणुप्पिए ! मा पडिबंधं करेह / ' तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही को (गर्भवतो हुए) दो मास बीत गये। तीसरा मास चल रहा था, तब इस प्रकार का दोहद उत्पन्न हुा-'वे माताएँ धन्य हैं, यावत् (पुण्यशालिनी हैं, कृतार्थ हैं) तथा वे माताएँ शुभ लक्षण वाली हैं जो विपुल प्रशन, पान, खादिम और स्वादिम–यह चार प्रकार का आहार तथा बहुत-सारे पुष्प, वस्त्र, गंध और माला तथा अलंकार ग्रहण करके मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों की स्त्रियों के साथ परिवृत होकर राजगृह नगर के बीचोंबीच होकर निकलती हैं। निकल कर जहाँ पुष्करिणी है वहाँ आती हैं, पाकर पुष्करिणी में अवगाहन करती हैं, अवगाहन करके स्नान करती हैं, बलिकर्म करती हैं और सब अलंकारों से विभूषित होती हैं / फिर विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार का आस्वादन करती हुई, विशेष आस्वादन करती हुई, विभाग करती हुई तथा परिभोग करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती हैं।' इस प्रकार भद्रा सार्थवाहो ने विचार किया। विचार करके कल-दूसरे दिन प्रातः काल सूर्योदय होने पर. धन्य सार्थवाह के पास आई। आकर धन्य सार्थवाह से इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय ! मुझे उस गर्भ के प्रभाव से ऐसा दोहद उत्पन्न हुआ है कि वे माताएँ धन्य हैं और सुलक्षणा हैं जो अपने दोहद को पूर्ण करतो हैं, आदि / अतएव हे देवानुप्रिय ! आपकी आज्ञा हो तो मैं भी दोहद पूर्ण करना चाहती हूँ। __ सार्थवाह ने कहा है देवानुप्रिये ! जिस प्रकार सुख उपजे वैसा करो। उसमें ढोल मत करो। 1. द्वि म. सूत्र 11. 2. प्र. प्र. सूत्र 28. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org