________________ 170 ] [ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् सुदर्शन, शुक परिव्राजक से धर्म को श्रवण करके हर्षित हुआ। उसने शुक से शौचमुलक धर्म को स्वीकार किया। स्वीकार करके परिव्राजकों को विपल प्रशन.. / अशन, पान, खादिम, स्वादिम और वस्त्र से प्रतिलाभित करता हुआ अर्थात् प्रशन प्रादि दान करता हुआ रहने लगा। तत्पश्चात् वह शुक परिव्राजक सौगंधिका नगरी से बाहर निकला / निकल कर जनपद-विहार से विचरने लगा-देश-देशान्तर में भ्रमण करने लगा। यावच्चापुत्र का आगमन 34 तेणं कालेणं तेणं समएणं थावच्चापुत्ते णामं अणगारे सहस्सेणं अणगारेणं सद्धि पुव्वाणव्वि चरमाणे, गामाणगाम दुइज्जमाणे, सहसुहेणं विहरमाणे जेणेव सोगंधिया नयरी, जेणेव नीलासोए उज्जाणे, तेणेव समोसढे / उस काल और उस समय में थावच्चापुत्र नामक अनगार एक हजार साधुओं के साथ अनुक्रम से विहार करते हुए, एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाते हुए और सुख-सुखे विचरते हुए जहाँ सौगंधिका नामक नगरी थी और जहाँ नीलाशोक नामक उद्यान था, वहाँ पधारे / यावच्चापुत्र-सुवर्शनसंवाद ३५–परिसा निग्गया / सुदंसणो वि णिग्गए। थावच्चापुत्तं नामं अणगारं आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासो-'तुम्हाणं किंमूलए धम्मे पन्नत्ते ? तए णं थावच्चापुत्ते सुदंसणेणं एवं वुत्ते समाणे सुदंसणं एवं वयासी--'सुदंसणा! विणयमूले धम्मे पण्णत्ते / से वि य विणए दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-अगारविणए य अणगारविणए य / तत्थ णं जे से अगारविणए से णं पंच अणुव्वयाई,' सत्तसिक्खावयाई, एक्कारस उवासगपडिमाओ। तत्थ णं जे से अणगारविणए से णं पंच महव्ययाइं पन्नत्ताई, तंजहा-सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं, सव्वाओ अदिनादाणाओ वेरमणं, सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं, सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं, सम्वाओ राइभोयणाओ वेरमणं, जाव मिच्छादसणसल्लाओ वेरमणं, दसविहे पच्चक्खाणे, बारस भिक्खुपडिमाओ, इच्चेएणं दुविहेणं विणयमूलएणं धम्मेणं अणुपुत्वेणं अट्ठकम्म-पगडीओ खवेत्ता लोयग्गपइटुठाणे भवंति। थावच्चापुत्र अनगार का आगमन जानकर परिषद् निकली / सुदर्शन भी निकला / उसने थावच्चापुत्र अनगार को दक्षिण तरफ से प्रारंभ करके प्रदक्षिणा की / प्रदक्षिणा करके वन्दना की, नमस्कार किया / वन्दना-नमस्कार करके वह इस प्रकार बोला---'आपके धर्म का मूल क्या है ? तब सूदर्शन के इस प्रकार कहने पर थावच्चापुत्र अनगार ने सुदर्शन से इस प्रकार कहाहे सुदर्शन ! (हमारे मत में) धर्म विनयमूलक कहा गया है। यह विनय (चारित्र) भी दो प्रकार का कहा है--अगार-विनय अर्थात् गृहस्थ का चारित्र और अनगारविनय अर्थात् मुनि का चारित्र / इनमें जो अगारविनय है, वह पाँच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत और ग्यारह उपासक-प्रतिमा रूप है / अनगारविनय पाँच महाव्रत रूप है, यथा समस्त प्राणातिपात (हिंसा) से विरमण, समस्त मृषावाद से विरमण, समस्त अदत्तादान से विरमण, समस्त मैथुन से विरमण और समस्त परिग्रह से विरमण / 1. यह विनयवर्णन भ. महावीर के काल की अपेक्षा से है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org