________________ नवम अध्ययन : माकन्दी] [ 293 तत्थ उ -- सण-सत्तवण्ण-कउओ, नीलुप्पल-पउम-नलिण-सिंगो। सारस-चक्कवाय-रवित-घोसो, सरयउऊ-गोवती साहीणो // 1 // तत्थ य--- सियकुद-धवलजोहो, कुसुमित-लोद्धवणसंड-मंडलतलो। तुसार-दगधार-पीवरकरो, हेमंतउऊ-ससी सया साहीणो // 2 // अगर तुम वहाँ भी ऊब जायो, उत्सुक हो जायो या कोई उपद्रव हो जाये-भय हो जाये, तो तुम उत्तर दिशा के वनखण्ड में चले जाना / वहाँ भी दो ऋतुएँ सदा स्वाधीन हैं। ये यह हैं—शरद् और हेमन्त / उनमें से शरद् (कार्तिक और मार्गशीर्ष) इस प्रकार हैं -- शरद् ऋतु रूपी गोपति-वृषभ सदा स्वाधीन है / सन और सप्तच्छद वृक्षों के पुष्प उसका ककुद (कांधला) है, नीलोत्पल, पद्म और नलिन उसके सींग हैं, सारस और चक्रवाक पक्षियों का कूजन ही उसका घोष (दलांक) है। हेमन्त ऋतु रूपी चन्द्रमा उस वन में सदा स्वाधीन है। श्वेत कुन्द के फूल उसकी धवल ज्योत्स्ना-चांदनी है। प्रफुल्लित लोध्र वाला वनप्रदेश उसका मंडलतल (बिम्ब) है और तुषार के जलबिन्दु की धाराएँ उसकी स्थूल किरणें हैं।' २४-तत्थ णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! वावीसु य जाव बिहराहि / हे देवानुप्रियो ! तुम उत्तर दिशा के उस वनखण्ड में यावत् क्रीडा करना / २५–जइ णं तुब्भे तत्थ वि उध्विग्गा वा जाव उस्सुया वा भवेज्जाह, तो णं तुब्भे अवरिल्लं वणसंडं गच्छेज्जाह / तत्थ णं दो उऊ साहीणा, तंजहा-वसंते य गिम्हे य / तत्थ उ सहकार-चारहारो, किसुय-कणियारासोग-मउडो। ऊसियतिलग बउलायवत्तो, वसंतउऊ-गरवई साहीणो // 1 // तत्थ यपाडल-सिरीस-सलिलो, मलिया-वासंतिय-धवलवेलो। सोयल-सुरभि-अनल-मगरचरिओ, गिम्हउऊ-सागरो साहीणो // 2 // यदि तुम उत्तर दिशा के वनखण्ड में भी उद्विग्न हो जानो, यावत् मुझसे मिलने के लिए उत्सुक हो जाओ, तो तुम पश्चिम दिशा के वनखण्ड में चले जाना / उस वनखण्ड में भी दो ऋतुएँ सदा स्वाधीन हैं / वे यह हैं-बसन्त और ग्रीष्म / उसमें-- वसन्त रूपी ऋतु-राजा सदा विद्यमान रहता है / वसन्त-राजा के पाम्र के पुष्पों का मनोहर हार है, किंशुक (पलाश), कर्णिकार (कनेर) और अशोक के पुष्पों का मुकुट है तथा ऊँचे-ऊँचे तिलक और बकुल वृक्षों के फूलों का छत्र है / और उसमें उस वनखण्ड में ग्रीष्म ऋतु रूपी सागर सदा विद्यमान रहता है। वह ग्रीष्म-सागर पाटल और शिरीष के पुष्पों रूपी जल से परिपूर्ण रहता है / मल्लिका और वासन्तिकी लताओं के कुसुम ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org