________________ 404] [ ज्ञाताधर्मकथा वहाँ से निकलकर वह उरगयोनि में उत्पन्न हुई / इस प्रकार जैसे गोशालक के विषय में (भगवतीसूत्र में) कहा है, वही सब वृत्तान्त यहाँ समझना चाहिए, यावत् रत्नप्रभा आदि सातों नरक भूमियों में उत्पन्न हुई। वहाँ से निकल कर यावत् खेचरों की विविध योनियों में उत्पन्न हुई। तत्पश्चात् खर (कठिन) बादर पृथ्वीकाय के रूप मे अनेक लाख बार उत्पन्न हुई / विवेचन-नागश्री ने जो पाप किया वह असाधारण था। धर्मरुचि एक महान् संयमनिष्ठ साधु थे / जगत् के समस्त प्राणियों को प्रात्मवत् जानने वाले, करुणा के सागर थे। कीड़ी जैसे क्षुद्र प्राणियों की रक्षा के लिए जिन्होंने शरीरोत्सर्ग कर दिया, उनसे अधिक दयावान् अन्य कौन होगा? अन्तिम समय में भी उनका समाधिभाव खंडित नहीं हुआ / उन्होंने आलोचना प्रतिक्रमण किया और समाधिभाव में स्थिर रहे। चित्त की शान्ति और समता को यथावत् अखंडित रखा / नागश्री ब्राह्मणी के प्रति लेश मात्र भी द्वेषभाव उनके मन में नहीं आया, जो ऐसे अवसर पर आ जाना असंभव नहीं था। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि उनके लिए जो 'उच्छृढसरीरे' विशेषण का प्रयोग किया गया है वह केवल प्रशंसापरक नहीं किन्तु यथार्थता का द्योतक है / (देखिए सूत्र 10) / वास्तव में धर्मरुचि अनगार देहस्थ होने पर भी देहदशा से अतीत थे—विदेह थे। शरीर और आत्मा का पृथक्त्व वे जानते ही नहीं थे, प्रत्युत अनुभव भी करते थे। शरीर का पात होने पर भी प्रात्मा अजरअमर अविनाशी है, यह अनुभति उनके जीवन का अंग बन च की थी। इसी अनुभूति के प्रबल बल से वे सहज समभाव में रमण करते हुए शरीर-त्याग करने में सफल हुए। जीवन-अवस्था में किये हुए आचरण के संस्कार व्यक्त या अव्यक्त रूप में संचित होते रहते हैं और मरण-काल में वे प्राणी की बद्धि-भावना-विचारधारा को प्रभावित करते हैं। आगम का विधान है कि जीव जिस लेश्या में मरता है, उसी लेश्या के वशीभत होकर आगामी जन्म लेता है। अन्तिम समय की लेश्या जीवन में संचित संस्कारों के अनुरूप ही होती है। कुछ लोग सोचते हैंअभी कुछ भी करें, जीवन का अन्त संवार लेंगे, परन्तु यह विचार भ्रान्त है / जीवन का क्षण-क्षण संवारा हुआ हो तो अन्तिम समय संवरने की संभावना रहती है / कुछ अपवाद हो सकते हैं किन्तु वे मात्र अपवाद ही हैं। नागश्री ने एक उत्कृष्ट संयमशील साधु का जान-बूझ कर हनन किया / यह अधमतम पाप था / इसका भयंकर से भयंकर फल उसे भुगतना पड़ा / उसे समस्त नरकभूमियों में, उरग, जलचर, खेचर, असंज्ञी, संज्ञी आदि पर्यायों में अनेक-अनेक बार जन्म-मरण की दुस्सह यातनाएँ सहन करनी पड़ी। / प्रस्तुत सूत्र में पाठ कुछ संक्षिप्त है / प्रतीत होता है कि टीकाकार अभयदेवसूरि के समक्ष दोनों पाठ विद्यमान थे। वे अपनी टीका में लिखते हैं-'गोशालकाध्ययनसमान' सूत्रं ततएव दृश्यं, बहुत्वात्तु न लिखितम् / ' __अर्थात् नागश्री के भवभ्रमण का वृत्तान्त बहुत विस्तृत है, अतः उसे यहाँ लिखा नहीं गया है, परन्तु गोशालक-अध्ययन (भगवतीसूत्र के पन्द्रहवें शतक) के अनुसार वह वर्णन जान लेना चाहिए / प्रस्तुत सूत्र में 'जाव' शब्दों के प्रयोग द्वारा उसको ग्रहण कर लिया गया है / कहीं-कहीं प्रस्तुत सूत्र में पाए 'जहा गोसाले तहा नेयव्वं जाव' इस पाठ के स्थान पर निम्नलिखित पाठ अधिक उपलब्ध होता है--- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org