________________ आठवां अध्ययन : मल्ली] [229 तत्पश्चात् पद्मावती देवी अपने परिवार से परिवृत होकर साकेत नगर के बीच में होकर निकली। निकलकर जहाँ पुष्करिणी थी वहाँ आई / आकर पुष्करिणी में प्रवेश किया। प्रवेश करके यावत् [जलक्रीड़ा को, स्नान किया, बलिकर्म किया और अत्यन्त शुचि होकर गीली साड़ी पहनकर वहां जो कमल, (कुमुद, नलिन, सुभग, सौगंधिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र सहस्रपत्र) आदि विभिन्न जाति के कमल) थे, उन्हें यावत् ग्रहण किया / ग्रहण करके जहाँ नागगृह था, वहाँ जाने के लिए प्रस्थान किया। ४५-तए णं पउमावई दासचेडीओ बहूओ पुष्फपडलगहत्यगयाओ धूवकडुच्छगहत्थगयाओ पिट्ठओ समणुगच्छति। तए णं पउमावई सविडोए जेणव पागधरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता नागघरयं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता लोमहत्थगं जाब' धूवं डहइ, डहित्ता पडिबुद्धि रायं पडिवालेमाणी पडिवालेमाणी चिट्ठइ। तत्पश्चात् पद्मावती देवी की बहुत-सी दास-चेटियाँ (दासियां) फूलों की छवड़ियाँ तथा धूप की कुडछियां हाथ में लेकर पीछे-पीछे चलने लगीं। तत्पश्चात् पद्मावती देवी सर्व ऋद्धि के साथ--पूरे ठाठ के साथ-जहाँ नागगृह था, वहां आई। आकर नागगृह में प्रविष्ट हुई। प्रविष्ट होकर रोमहस्त (पींछी) लेकर प्रतिमा का प्रमार्जन किया, यावत् धूप खेई / धूप खेकर प्रतिबुद्धि राजा की प्रतीक्षा करती हुई वहीं ठहरी / ४६-तए णं पडिबुद्धी राया पहाए हथिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेयवरचामराहि वीइज्जमाणे हय-गय-रह-जोह-महयाभडचडगरपहकरेहि साकेयं नगरं मज्झंमज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छिता जेणेव णागघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हत्थिखंधाओ पच्चोरहइ, पच्चोरहित्ता आलोए पणामं करेइ, करिता पुष्फमंडवं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता पासइ तं एगं महं सिरिदामगंडं। तत्पश्चात् प्रतिबुद्धि राजा स्नान करके श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर आसीन हुआ। कोरंट के फूलों सहित अन्य पुष्पों की मालाएँ जिसमें लपेटी हुई थीं, ऐसा छत्र उसके मस्तक पर धारण किया गया / यावत् उत्तम श्वेत चामर ढोरे जाने लगे। उसके आगे-आगे विशाल घोड़े, हाथी, रथ और पैदल योद्धा-यह चतुरंगी सेना चली / सुभटों के बड़े समूह के समूह चले / वह साकेत नगर के मध्य भाग में होकर निकला / निकल कर जहाँ नागगृह था, वहां अाया। पाकर हाथी के स्कंध से नीचे उतरा / उतरकर प्रतिमा पर दृष्टि पड़ते ही उसे प्रणाम किया। प्रणाम करके पुष्प-मंडप में प्रवेश किया। प्रवेश करके वहां उसने एक महान् श्रीदामकाण्ड देखा। ४७–तए णं पडिबुद्धी तं सिरिदामगंडं सुदूरं कालं निरिक्खइ, निरिक्खित्ता तसि सिरिदा. मगंडंसि जायविम्हए सुबुद्धि अमच्चं एवं वयासी 'तुमं गं देवाणुप्पिया ! मम दोच्चेणं बहूणि गामागर० जाव संनिवेसाई आहिंडसि, बहूणि 1. द्वि. अ. 15 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International