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________________ वयामि पञ्चम अध्ययन : शैलक ] [ 181 तत्पश्चात् शुक अनगार किसी समय जहाँ शैलकपुर नगर था और जहाँ सुभूमिभाग नामक उद्यान था, वहीं पधारे / उन्हें वन्दना करने के लिए परिषद् निकली। शैलक राजा भी निकला। धर्मोपदेश सुनकर उसे प्रतिबोध प्राप्त हुआ / विशेष यह कि राजा ने निवेदन किया-हे देवानुप्रिय ! मैं पंथक आदि पाँच सौ मंत्रियों से पूछ लू-उनकी अनुमति ले लूं और मंडुक कुमार को राज्य पर स्थापित कर दूं। उसके पश्चात् अाप देवानुप्रिय के समीप मुडित होकर गृहवास से निकलकर अनगार-दीक्षा अंगीकार करूंगा।' यह सुनकर, शुक अनगार ने कहा---'जैसे सुख उपजे वैसा करो।' ५४-तए णं से सेलए राया सेलगपुरं नयरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव सए गिहे, व बाहिरिया उवदाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता सीहासणं सन्निसन्ने। तए णं से सेलए राया पंथयपामोक्खे पंच मंतिसए सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! मए सुयस्स अंतिए धम्मे निसंते, से वि य धम्मे मए इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए / अहं णं देवाणुप्पिया ! संसारभयउविग्गे जाव (भीए जम्म-जर-मरणाणं सुयस्स अणगारस्स अंतिए मुडे 1 अगाराओ अणगा / तुब्भे ण देवाणुप्पिया! कि करेह ? कि वसेह ? कि वा ते हियइच्छिए त्ति? तए णं तं पंथयपामोक्खा सेलगं रायं एवं बयासी... 'जइ णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! संसारभयउविग्गे जाव पन्वयह, अम्हाणं देवाणुप्पिया! किमन्ने आहारे वा आलंबे वा ? अम्हे वि य णं देवाणुप्पिया ! संसारभयउब्विग्गा जाव पव्वयामो, जहा देवाणुप्पिया! अम्हं बहुसु कज्जेसु य कारणेसु य जाव (कुडुबेसु य मंतेसु य गुज्झेसु य रहस्सेसु य निच्छएसु य आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे मेढी पमाणं आहारे आलंबणं चक्खू, मेढीभूए पमाणभूए आहारभूए आलंबणभूए चक्खुभूए) तहा गं पव्वइयाण वि समाणाणं बहुसु जाव चवखुभूए। तत्पश्चात् शैलक राजा ने शैलकपुर नगर में प्रवेश किया। प्रवेश करके जहाँ अपना घर था और जहाँ बाहर की उपस्थानशाला (राजसभा) थी, वहाँ पाया / आकर सिंहासन पर आसीन हुअा। तत्पश्चात् शैलक राजा ने पथक आदि पांच सौ मंत्रियों को बुलाया / बुलाकर इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रियो ! मैंने शुक अनगार से धर्म सुना है और उस धर्म की मैंने इच्छा की है। वह धर्म मुझे रुचा है / अतएव हे देवानुप्रियो ! मैं संसार के भय से उद्विग्न होकर [जन्म-जरा-मरण से भयभीत होकर, शुक अनगार के समीप मुडित होकर गृहत्याग करके अनगार-] दीक्षा ग्रहण कर रहा हूँ। देवानुप्रियो ! तुम क्या करोगे ? कहाँ रहोगे? तुम्हारा हित और अभीष्ट क्या है ? अथवा तुम्हारी हादिक इच्छा क्या है ? तब वे पंथक आदि मंत्री शैलक राजा से इस प्रकार कहने लगे----'हे देवानुप्रिय ! यदि आप संसार के भय से उद्विग्न होकर यावत् प्रवजित होना चाहते हैं, तो हे देवानुप्रिय ! हमारा दुसरा (पृथ्वी की तरह) आधार कौन है ? हमारा (रस्सी के समान) आलंबन कौन है ? अतएव हे देवानुप्रिय ! हम भी संसार के भय से उद्विग्न होकर दीक्षा अंगीकार करेंगे / हे देवानुप्रिय ! जैसे आप यहाँ गृहस्थावस्था में बहुत से कार्यों में, कुटुम्ब संबंधी विषयों में, मन्त्रणामों में, गुप्त एवं रहस्यमय बातों में, कोई भी निश्चय करने में एक बार और बार-बार पूछने योग्य हैं, मेढी, प्रमाण, आधार, पालं बन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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