________________ ज्ञाता थी।७३ जातक के अनुसार मिथिला के चार प्रवेशद्वारों में प्रत्येक स्थान पर बाजार थे। (जातक VI पृ. 330) नगर वास्तुकला की दृष्टि से अत्यन्त कलात्मक था। वहां के निवासी बहुमूल्य वस्त्र धारण करते थे। (जातक 46 महाभारत 206) रामायण के अनुसार यह एक मनोरम व स्वच्छ नगर था / सुन्दर सड़कें थीं। व्यापार का बड़ा केन्द्र था / (परमत्थदीपकी प्रान' द थेरगाथा सिंहली संस्करण // 277-8) यह नगर विज्ञों का केन्द्र था। (आश्वलायन श्रोतसूत्र x 3, 14) अनेक तार्किक यहाँ पर हुए हैं जिन्होंने तर्कशास्त्र को नई दिशा दी। महान् तार्किक गणेश मण्डन मिश्र और वैष्णव कवि विद्यापति भी यहीं के थे। विदेह राज्य की सीमा उत्तर में हिमालय, दक्षिण में गंगा, पश्चिम में गंडकी और पूर्व में मही नदी तक थी। वर्तमान में नेपाल की सीमा के अन्तर्गत यहाँ मुजफ्फरपुर और दरभंगा के जिले हैं। वहां छोटे नगर जनकपुर को प्राचीन मिथिला कहते हैं। कितने ही विद्वान् सीतामढी के सप्टिकट 'महिला'१०४ नामक स्थान को प्राचीन मिथिला का अपभ्रंश मानते हैं। जैन आगमों में दस राजधानियों में मिथिला भी एक है। प्रस्तुत अध्ययन में उत्कृष्ट चित्रकला का भी रूप देखने को मिलता है। कलाकार इतने निष्णात होते थे कि किसी व्यक्ति के एक अंग को देखकर ही उनका हबह चित्र उटैंकित कर देते थे। राजा-महाराजा और श्रेष्ठीमणों को चित्रकला अधिक प्रिय थी जिसके कारण विविध प्रकार की चित्रशालाएँ बनाई जाती थीं। प्रस्तुत अध्ययन में कुछ अवान्तर कथाएं भी आई हैं। जब परिवाजिका चोक्खा राजा जितशत्रु के पास जाती है, परिव्राजिका से कहता है कि क्या आपने मेरे जैसे अन्तःपुर को कहीं निहारा है ? परिवाजिका ने मुस्कराते हुए कहातुम कूपमंडूक जैसे हो और फिर कूपमंडूक की मनोरंजक कथा मूल पाठ में दी गई है। प्रस्तुत अध्ययन में अहन्नक श्रावक को सुदृढ़ धर्मनिष्ठा का उल्लेख है। उस युग में समुद्रयात्रा की जाती थी / ध्यापारीगण विविध प्रकार की सामग्री लेकर एक देश से दूसरे देश में पहुँचते थे। इसमें छह राजामों का परिचय भी दिया गया है। मल्ली भगवती के युग में राज्यव्यवस्था किस प्रकार थी, इसकी भी स्पष्ट जानकारी मिलती है। नौवें अध्ययन में माकन्दीपुत्र जिनपालित और जिनरक्षित का वर्णन है। उन्होंने अनेक बार समुद्रयात्रा की थी। जब मन में प्राता तब वे यात्रा के लिए चल पड़ते / बारहवीं बार माता-पिता नहीं चाहते थे कि वे विदेशयात्रा के लिए जायें, पर वे प्राज्ञा की अवहेलना कर चल दिये। किन्तु भयंकर तूफान से उनकी नौका टूट गई और वे रत्नद्वीप में रत्नदेवी के चुगल में फंस गये। शैलक यक्ष ने उनका उद्धार करना चाहा। जिनरक्षित ने वासना से चलचित्त होकर अपने प्राण गंवा दिये और जिनपालित विचलित न होने से सुरक्षित स्थान पर पहुंच गया। इसी प्रकार जो साधक अपनी साधना से विचलित नहीं होता है वही लक्ष्य को प्राप्त करता है। प्रस्तुत कथानक से मिलता-जुलता कथानक बौद्ध साहित्य के बलाहस जातक में हैं और दिव्यावदान में भी मिलता है / तुलनात्मक अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि कथानकों में परम्परा के भेद से कुछ अन्तर अवश्य आता है पर कथानक के मूल तत्त्व प्राय: काफी मिलते-जुलते हैं। प्रस्तुत कथानक से यह भी पता चलता है कि समुद्रयात्रा सरल और सुमम नहीं थी। अनेक प्रापत्तियाँ उस यात्रा में रही हुई थीं। उन आपत्तियों से बचने के लिए वे लोग स्तुतिपाठ और मंगलपाठ भी करते थे। विदेशयात्रा के लिए राजा की प्राज्ञा भी प्रावश्यक थी। इष्ट स्थान पर पहुंचने पर वे उपहार लेकर वहाँ के राजा के पास पहुंचते और राजा उनके कर को माफ कर देता था / प्रार्थिक व्यवस्था में विनियम का महत्त्वपूर्ण हाथ है। इसलिए व्यापारी व्यापार के विकास हेतु समुद्रयात्रा करता थे। 173. वही० पृ० 22 174. The Ancient Geogrphy of India, पृ० 718 175. स्थानांग 10/117 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org