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________________ 372 ] [ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् किसी समय कनकरथ राजा कालधर्म से युक्त हो गया-मर गया / तब राजा, ईश्वर, (तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति आदि ने रुदन करते हुए, चीखचीखकर रोते हुए, विलाप करते हुए खूब धूम-धाम से कनकरथ राजा का नीहरण किया--अन्तिम संस्कार वि र किया।) अन्तिम संस्कार करके वे परस्पर इस प्रकार कहने लगे--'देवानप्रियो ! कनकरथ राजा ने राज्य आदि में प्रासक्त होने के कारण अपने पुत्रों को विकलांग कर दिया है / देवानुप्रियो ! हम लोग तो राजा के अधीन हैं, राजा से अधिष्ठित होकर रहने वाले हैं और राजा के अधीन रहकर कार्य करने वाले हैं, तेतलिपुत्र अमात्य राजा कनकरथ का सब स्थानों में और सब भूमिकाओं में विश्वासपात्र रहा है, परामर्श-विचार देने वाला—विचारक है और सब काम चलाने वाला है। अतएव हमें तेतलिपुत्र अमात्य से कुमार की याचना करना चाहिये।' इस प्रकार विचार करके उन्होंने आपस में यह बात स्वीकार की। स्वीकार करके तेतलिपुत्र अमात्य के पास आये / पाकर तेतलिपुत्र से इस प्रकार कहने लगे ३९-.-'एवं खलु देवाणुप्पिया ! कणगरहे राया रज्जे य रठे य जाव वियंगेइ, अम्हे य णं देवाणुप्पिया ! रायाहीणा जाव रायाहोणकज्जा, तुमं च णं देवाणुप्पिया ! कणगरहस्स रणो सबढाणेसु जाव रज्जधुचितए / तं जइ गं देवाणुप्पिया! अस्थि केइ कुमारे रायलक्खणसंपन्ने अभिसेयारिहे, तं गं तुमं अम्हं दलाहि, जा णं अम्हे महया रायाभिसेएणं अभिसिंचामो।' 'देवानुप्रिय ! बात ऐसी है-कनकरथ राजा राज्य में तथा राष्ट्र में आसक्त था / अतएव उसने अपने सभी पुत्रों को विकलांग कर दिया है और हम लोग तो देवानुप्रिय ! राजा के अधीन रहने वाले यावत् राजा के अधीन रहकर कार्य करने वाले हैं / हे देवानुप्रिय ! तुम कनकरथ राजा के सभी स्थानों में विश्वासपात्र रहे हो, यावत् राज्यधुरा के चिन्तक हो। अतएव देवानुप्रिय ! यदि ई कुमार राजलक्षणों से युक्त और अभिषेक के योग्य हो तो हमें दो, जिससे महान-महान राज्याभिषेक से हम उसका अभिषेक करें।' ४०–तए णं तेलिपुत्ते तेसि ईसरपभिईणं एयमढें पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता कणगज्मयं कुमारं पहायं जाव सस्सिरीयं करेइ, करित्ता तेसि ईसरपभिईणं उवणेइ, उवणित्ता एवं वयासो _ 'एस णं देवाणुप्पिया ! कणगरहस्स रण्णो पुत्तें, पउमावईए देवीए अत्तए, कणगज्झए कुमारे अभिसेयारिहे रायलक्खणसंपन्ने / मए कणगरहस्स रण्णो रहस्सियं संवड्डिए / एयं णं तुम्भे महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचह / ' सब्वं च तेसि (से) उढाणपरियावणियं परिकहेइ / तए णं ते ईसरपभिइओ कणगज्झयं कुमारं महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचंति / तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने उन ईश्वर आदि के इस कथन को अंगीकार किया / अंगीकार करके कनकध्वज कुमार को स्नान कराया और विभूषित किया। फिर उसे उन ईश्वर आदि के पास लाया / लाकर कहा __ 'देवानुप्रियो ! यह कनकरथ राजा का पुत्र और पद्मावती देवी का आत्मज कनकध्वज कुमार अभिषेक के योग्य है और राजलक्षणों से सम्पन्न है / मैंने कनकरथ राजा से छिपा कर इसका संवर्धन किया है / तुम लोग महान्-महान् राज्याभिषेक से इसका अभिषेक करो।' इस प्रकार कहकर उसने कुमार के जन्म का और पालन-पोषण आदि का समग्न वृत्तान्त उन्हें कह सुनाया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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