________________ प्रज्ञानवादी मोक्षप्राप्ति के लिए ज्ञान को निष्फल मानते थे / बौद्ध ग्रन्थों में 'पकुध कच्चायन' को प्रक्रियावादी कहा है। 205 / (12) वृद्धवद्धावस्था में संन्यास ग्रहण करने में विश्वास वाले / ऋषभदेव के समय में उत्पन्न होने के कारण ये सभी लिगियों में प्रादिलिंगी कहे जाते हैं / इसलिए उन्हें वृद्ध कहा है। (13) श्रावक-धर्मशास्त्र श्रवण करने वाला ब्राह्मण / 'श्रावक' शब्द जैन और बौद्ध दोनों ही परम्परागों में विशेष रूप से प्रचलित रहा है। वह वर्तमान में भी जैन और बौद्ध उपासकों के अर्थ में व्यवहत होता है / यह वैदिक परम्परा के ब्राह्मणों के लिए कब प्रयुक्त हुना, यह चिन्तनीय है। श्रमण भगवान महावीर के समय तीन सौ तिरेसठ पाखण्ड-मत प्रचलित थे। उन अन्य तीर्थों में वृद्ध' और 'श्रावक' ये शब्द प्रयुक्त हुए हैं / 208 प्रोपपातिक में विशिष्ट साधना में लगे हए अन्य तीथिकों का वर्णन करते हुए लिखा है कि कितने ही साधक दो पदार्थ खाकर, कितने 3-4.5 पदार्थ खाकर जीवन निर्वाह करते थे। उनमें वृद्ध और श्रावक का भी उल्लेख२०६ है। अंगुत्तरनिकाय१० में भी बद्ध, श्रावक का वर्णन है। उस वर्णन से भी यह परिज्ञात होता है कि वह प्रति जो उद्गार व्यक्त किये गये हैं वह चिन्तन करने के लिए उत्प्रेरित करते हैं / जो हिंसा करने वाला, चोरी, अब्रह्म का सेवन करने वाला, असत्यप्रलापी, सुरा, मेरय प्रभति मादक वस्तुएँ ग्रहण करने वाला होता है उस निगण्ठ वृद्ध श्रावक----देवधम्मिक में ये पांच बातें होती हैं / वह इसी प्रकार होता है जैसे नरक में डाल दिया गया हो। चरक, शाक्य आदि के साथ वृद्ध श्रावक का उल्लेख है, जिससे यह ज्ञात होता है कि उस समय का कोई विशिष्ट सम्प्रदाय होना चाहिए। पर प्रश्न यह है वृद्ध श्रावक यह श्रमण संस्कृति का उपजीवी है या ब्राह्मण संस्कृति का? प्राचीन ग्रन्थों में केवल नाम का उल्लेख हुमा है, पर उस सम्बन्ध में कोई स्पष्टीकरण नहीं किया गया है। जैन साहित्य के पर्यवेक्षण से यह स्पष्ट परिज्ञात होता है कि बद्ध श्रावक का उत्स जैन परम्परा में है। बाद में चलकर वह ब्राह्मण परम्परा में अंतनिहित हो गया। वृद्ध श्रावक का अर्थ दो तरह से चिन्तन करते हैंपहले में वृद्ध और श्रावक इस तरह पदच्छेद कर वृद्ध और श्रावक दोनों को पृथक्-पृथक् माना है / दूसरे में वृद्ध श्रावक को एक ही मानकर एक ही सम्प्रदाय का स्वीकार किया है / औपपातिक 211 सूत्र की वृत्ति में वृद्ध अर्थात् तापस श्रावक-- ब्राह्मण, तापसों को वृद्ध कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान ऋषभदेव ने चार सहस्र व्यक्तियों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की थी। किन्तु आहार के अभाव में वे श्रमण धर्म से च्युत होकर तापस बने / भगवान ऋषभदेव के तीर्थप्रवर्तन के पूर्व ही तापस परम्परा प्रारम्भ हो गई थी। इसलिए उन्हें वृद्ध कहते हैं / वैदिक परम्परा में प्राश्रम-व्यवस्था थी। उसमें पचहत्तर वर्ष के पश्चात् संन्यास ग्रहण करते थे। यद्धावस्था में संन्यास ग्रहण करने के कारण भी वे वृद्ध कहलाते थे। 205. (क) अनुयोगद्वार सूत्र 20 (ख) प्रौपपातिक सूत्र 37, पृ. 69 (ग) ज्ञाताधर्मकथा टीका, 15, पृ. 194 206. सूत्रकृतांग नियुक्ति गा. 119 207. हिस्टारिकल कलीनिग्स, B. C. La ha. 208. अण्णतीथिकाश्चरक-परिव्राजक-शाक्याजीविक-वृद्धश्रावकप्रभृतयः / -निशीथभाष्य चूणि, भाग 2, पृ.११८ 209. औपपातिक सूत्र 3 / 210. अंगुत्तरनिकाय (हिन्दी अनुवाद) भाग 2, पृ. 452 / 211. वृद्धाः तापसा वृद्धकाल एव दीक्षाभ्युपगमात् प्रादिदेवकालोत्पन्नत्वेन च सकललिगिनामाद्यत्वात्, श्रावका- धर्मशास्त्रश्रवणाद् ब्राह्मणाः अथवा बद्ध-श्रावका बाह्मणाः / ___-औपपातिक सू. 38 वृत्ति .. 53 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org