________________ ब्राह्मणों को श्रावक इसीलिए कहते हैं कि वे पहले श्रावक ही थे। बाद में ब्राह्मण की संज्ञा से सन्निहित हुए। प्राचारांग 211 चूर्णि आदि में लिखा है कि भगवान् ऋषभदेव जब श्रमण बन गये और भरत का राज्याभिषेक हो गया, श्रावकधर्म की जब उत्पत्ति हुई तो श्रावक बहुत ही ऋजु स्वभाव के धर्मप्रिय थे, किसी को भी हिंसा करते देखते तो उनका हृदय दया से द्रवित हो उठता और उनके मुख से स्वर फूट पड़ते--इन जीवों को मत मारो, मत मारो, "मा हन" इस उपदेश के प्राधार से 'माहण' ही बाद में 'ब्राह्मण' हो गये।। सम्भव है पहले श्रमण और श्रावक दोनों के लिए "माहण" शब्द का प्रयोग होता रहा हो। एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि वृद्ध श्रावक का अर्थ ब्राह्मण क्यों किया जाय / भगवान् महावीर के समय हजारों की संख्या में पाश्र्वापत्य श्रावक विद्यमान थे। वे बद्ध श्रावक कहे जा सकते हैं। पर उत्तर में निवेदन है कि प्रागमसाहित्य में जहाँ पर भी 'बुड्ढ सावय' शब्द व्यवहृत हपा है वहां 'निगण्ठ' शब्द भी पाया है। निर्ग्रन्थपरम्परा दोनों के लिए व्यवहृत होती थी। इसलिए वृद्ध श्रावक पृथक कहने की आवश्यकता नहीं। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि वद्ध श्रावक केवल गृहस्थों के लिए ही नहीं पाया है, साधु संन्यासी व गृहस्थ दोनों के लिए पाया है। जैसे 'शाक्य' शब्द उस परम्परा के संन्यासी व गृहस्थ दोनों के लिए आता है, वैसे ही निर्ग्रन्थ शब्द भी दोनों के लिए आता है, एक के लिए उपासक के साथ में आता है / अागम साहित्य के मंथन से२१३ यह भी स्पष्ट है कि वृद्ध श्रावक भगवान महावीर के समय पूर्ण रूप से वैदिक परम्परा की क्रियाओं का पालन करते थे। उनकी कोई भी क्रिया जैन परम्परा की धार्मिक क्रिया से मेल नहीं खाती थी। आज भले ही श्रावक शब्द ब्राह्मण परम्परा में प्रचलित न हो पर अतीत काल में था। भगवान ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती सम्राट भरत उन श्रावकों से प्रतिदिन "जितो भवान् वद्धते भीस्तस्मात् माहन माहन"= "आप पराजित हो रहे हैं, भय बढ़ रहा है, अतः प्रात्मगुणों का हनन न हो। अत: सावधान रहो।" इसे श्रवण कर अन्तमुखी होकर चिन्तन के सागर में डुबकी लगाने लगते / निरन्तर ऊर्ध्वमुखी चिन्तन होने से अनासक्ति की भावना निरन्तर बढ़ती रहती। माहन का उच्चारण करने वाले वे महान् माहन थे। सम्राट् भरत चक्रवर्ती ने उन श्रावकों के स्वाध्याय हेतु (1) संसारदर्शन, (2) संस्थानपरामर्शन (3) तत्त्वबोध (4) विद्याप्रबोध२१४ इन चार आर्यवेदों का निर्माण किया। वे वेद नौवें तीर्थंकर सुविधिनाथ तक चलते रहे / उसके पश्चात् सुलस और याज्ञवल्क्य प्रभति ऋषियों के द्वारा अन्य वेदों की रचना की गई। "वृद्ध श्रावक" शब्द ब्राह्मण परम्परा का ही सूचक है। यद्यपि इसका प्रादुर्भाव श्रमण परम्परा में हमा, किन्तु बाद में चलकर वह वैदिक परम्परा के सम्प्रदायविशेष के लिए व्यवहृत होने लगा। मेरी दृष्टि से वृद्ध और श्रावक ये दो पृथक न होकर एक ही होना चाहिए। (14) रक्तपट-लाल वस्त्रधारी परिव्राजक / इस प्रकार ये शब्द इतिहास और परम्परा के संवाहक हैं। कितने ही शब्द अतीत काल में अत्यन्त गरिमामय रहे हैं और उनका बहुत अधिक प्रचलन भी था, किन्तु समय की अनगिनत परतों के कारण उसकी अर्थ-व्यंजना दूर होती चली गई और वे शब्द आज रहस्यमय बन गये हैं। इसलिए उन शब्दों के अर्थ के अनुसन्धान की आवश्यकता है। सोलहवें अध्ययन में पाण्डवपत्नी द्रौपदी को पद्मनाभ अपहरण कर हस्तिनापुर से अमरकंका ले प्राता है। हस्तिनापुर कुरुजांगल जनपद की राजधानी थी। हस्तिनापुर के अधिपति श्रेयांस ने ऋषभदेव को सर्वप्रथम पाहार दान दिया 215 था। महाभारत के२१६ अनुसार सुहोत्र के पुत्र राजा हस्ती ने इस नगर को 212. प्राचारांग चूणि पृ. 5 / 213. अनुयोगद्वार 20, और 26 / 214. त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र 1-6-247-253 / 215. ऋषभदेव एक परिशीलन, पृ. 169 (ख) आवश्यक नियुक्ति. (गा०) 345 / 216. महाभारत, प्रादि पर्व 95-34-243 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org