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________________ [ 121 द्वितीय अध्ययन : संघाट ] तत्पश्चात् उन नगररक्षकों ने धन्य सार्थवाह के ऐसा कहने पर कवच (बख्तर) तैयार किया, उसे कसों से बाँधा और शरीर पर धारण किया / धनुष रूपी पट्टिका पर प्रत्यंचा चढ़ाई अथवा भुजानों पर पट्टा बाँधा / प्रायुध (शस्त्र) और प्रहरण (दूर से चलाए जाने वाले तीर आदि) ग्रहण किये / फिर धन्य सार्थवाह के साथ राजगृह नगर के बहुत-से निकलने के मार्गों यावत् दरवाजों, पीछे की खिड़कियों, छेड़ियों, किले की छोटी खिड़कियों, मोरियों, रास्ते मिलने की जगहों, रास्ते अलग-अलग होने के स्थानों, जुना के अखाड़ों, मदिरापान के स्थानों, वेश्या के घरों, उनके घरों के द्वारों (चोरों के अड्डों) चोरों के घरों, शृगाटकों-सिंघाड़े के आकार के मार्गों, तीन मार्ग मिलने के स्थानों, चौकों, अनेक मार्ग मिलने के स्थानों, नागदेव के गृहों, भूतों के गृहों, यक्षगृहों, सभास्थानों, प्याउनों आदि में तलाश करते-करते राजगृह नगर से बाहर निकले / निकल कर जहां जीर्ण उद्यान था और जहाँ भग्न कूप था, वहां पाये / आकर उस कूप में निष्प्राण, निश्चेष्ट एवं निर्जीव देवदत्त का शरीर देखा, देख कर 'हाय, हाय' 'अहो अकार्य !' इस प्रकार कह कर उन्होंने देवदत्त कुमार को उस हर निकाला और धन्य सार्थवाह के हाथों में सौंप दिया। विजय चोर का निग्रह २९-तए णं ते नगरगुत्तिया विजयस्स तक्करस्स पयमग्गमणुगच्छमाणा जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता मालुयाकच्छयं अणुपविसंति, अणुपविसित्ता विजयं तक्करं ससक्खं सहोडं सगेवेज्जं जीवग्गाहं गिण्हति / गिण्हिता अढि-मुट्ठि-जाणु-कोप्पर-पहारसंभग्गमयिगत्तं करेन्ति / करित्ता अवाउडबंधणं करेन्ति / करिता देवदिन्नस्स दारगस्स आभरणं गेण्हंति / गेण्हित्ता विजयस्स तक्करस्स गीवाए बंधति, बंधित्ता मालुयाकच्छयाओ पडिनिक्खमंति / पडिणिक्खमित्ता जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छति / उवागच्छिता रायगि नगरं अणपविसंति / अणपविसित्त सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-महापह-पहेसू कसय्पहारे य लयप्पहारे य छिवापहारे य निवाएमाणा निवाएमाणा छारं च धूलि च कयवरं च उरि पक्किरमाणा पक्किरमाणा महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणा एवं वदंति :--- __ तत्पश्चात् वे नगररक्षक विजय चोर के पैरों के निशानों का अनुसरण करते हुए मालुकाकच्छ में पहुँचे / उसके भीतर प्रविष्ट हुए। प्रविष्ट होकर विजय चोर को पंचों की साक्षीपूर्वक, चोरी के माल के साथ, गर्दन में बाँधा और जीवित पकड़ लिया। फिर अस्थि (हड्डी की लकड़ी), मुष्टि से घुटनों और कोहनियों आदि पर प्रहार करके उसके शरीर को भग्न और मथित कर दिया--ऐसी मार मारी कि उसका सारा शरीर ढीला पड़ गया। उसकी गर्दन और दोनों हाथ पीठ की तरफ बाँध दिए। फिर बालक देवदत्त के प्राभरण कब्जे में किये। तत्पश्चात् विजय चोर को गर्दन से बाँधे और मालकाकच्छ से बाहर निकले / निकल कर जहाँ राजगृह नगर था, वहाँ आये / वहाँ आकर राजगृह नगर में प्रविष्ट हए और नगर के त्रिक, चतुष्क, चत्वर एवं महापथ आदि मार्गों में कोडों के प्रहार, छड़ियों के प्रहार, छिव (कंबा) के प्रहार करते-करते और उसके ऊपर राख, धुल और कचरा डालते हुए तेज आवाज से घोषित करते हुए इस प्रकार कहने लगे ३०–'एस णं देवाणुप्पिया ! विजए नाम तक्करे जाव' गिद्धे विव आमिसभक्खी बालघायए, 1. द्वि. प्रा. सूत्र 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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