________________ (4) दाहिनो ओर चिघाड़ते हुए हाथी का शब्द करना और पृथ्वी को प्रताड़ना / (5) सूर्य के सम्मुख बैठे हुए कौए द्वारा बहुत तीक्ष्ण शब्द करना / (6) दाहिनी ओर कौए का पंखों को ढीला कर व्याकूल रूप में बैठना / (7) रीछ द्वारा भयंकर शब्द / (8) गीध का पंख फड़फड़ाना। (9) गर्दभ द्वारा दाहिनी ओर मुड़कर रेंकना। (10) सुगंधित हवा का मंद-मंद रूप से प्रवाहित होना / 178 (11) निर्धम अग्नि की ज्वाला दक्षिणावर्त प्रज्वलित होना / (12) नन्दीउर, पूर्णकलश, शंख, पटह, छत्र, चामर, ध्वजा-पताका का साक्षात्कार होना ! 176 प्रकीर्णक गणिविद्या 180 में लिखा है कि शकुन मुहूर्त से भी प्रबल होता है / जंबूक, चास (नीलकंठ), मयूर, भारद्वाज, नकुल यदि दक्षिण दिशा में दिखलाई दें तो सर्वसंपत्ति प्राप्त होती है।१८१ दसवें अध्ययन में चन्द्र के उदाहरण से प्रतिपादित किया है कि जैसे कृष्णपक्ष में चन्द्र की चारु चंद्रिका मंद और मंदतर होती जाती है और शुक्लपक्ष में वही चंद्रिका अभिवृद्धि को प्राप्त होती है वैसे ही चन्द्र के सदृश कमों की अधिकता से प्रात्मा की ज्योति मंद होती है और कर्म की ज्यों-ज्यों न्यूनता होती है त्यों-त्यों उसकी ज्योति अधिकाधिक जगमगाने लगती है / रूपक बहत ही शानदार है / दार्शनिक गहन विचारधारा को रूपक के द्वारा बहुत ही सरल व सुगम रोति से उपस्थित किया है / यह जिज्ञासा भी गणधर गौतम ने राजगृह में प्रस्तुत की थी और भगवान् ने समाधान दिया था। ग्यारहवें अध्ययन में समुद्र के सन्निकट दावद्रव नामक वृक्ष होते हैं / उनका उदाहरण देकर पाराधक और विराधक' का निरूपण किया गया है। जिस प्रकार वह वृक्ष अनुकूल और प्रतिकूल पवन को सहन करता है वैसे ही श्रमणों को अनुकूल और प्रतिकूल वचनों को सहन करना चाहिए / जो सहता है वह पाराधक बनता है। बारहवें अध्ययन में कलुषित जल को शुद्ध बनाने की पद्धति पर प्रकाश डाला है / गटर के गंदे पानी को साफ करने की यह पद्धति अाधुनिक युग की फिल्टर पद्धति से प्रायः मिलती है। आज से 2500 वर्ष पूर्व भी यह पद्धति ज्ञात थी / संसार का कोई भी पदार्थ एकान्त रूप से न शुभ है और न अशुभ ही है / प्रत्येक पदार्थ शुभ से अशुभ रूप में और अशुभ से शुभ रूप में परिवर्तित हो सकता है / अतः किसी से घृणा नहीं करनी चाहिए। यहां पर ध्यान देने योग्य है भगवान् ऋषभदेव और महावीर के अतिरिक्त बाईस तीर्थंकरों ने चातुर्याम धर्म का उपदेश दिया। यह चातुर्याम धर्म श्रमणों के लिए था, किन्तु गृहस्थों के लिए तो पंच अणुव्रत ही थे। वहां पर चार अणव्रत का उल्लेख नहीं है। किन्तु पाँच अणुव्रत का उल्लेख है।१८ इस कथानक का संबंध चंपानगरी से है। 178. पद्मचरित–७२, 84, 85/2, 91, 94, 95, 96 179. बृहत् कल्पलघुभाष्य-८२-८४ 180. गह दिणा उ मुहुत्ता मुहत्ता उ सउणावली। -प्रकीर्णक गणिविद्या श्लो०८ 181. प्रोपनियुक्ति भाष्य 108 182. "विचित्तं केवलिपन्नत्तं चाउज्जामं धम्म परिकहेइ, तमाइक्खइ जहा जीवा बझंति जाव पंच अणुब्बयाई।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org