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________________ कर सकता है यह इतिहास का एक काला पृष्ठ है और इस पृष्ठ को एक बार नहीं अनेक बार पुनरावृत्ति होती रही है / कभी पिता के द्वारा तो कभी पुत्र के द्वारा और कभी भाई के द्वारा / वस्तुतः लोभ का दानव जिसके सिर पर सवार हो जाता है वह उचित अनुचित के विवेक से विहीन हो जाता है। पन्द्रहवें अध्ययन में नंदीफल का उदाहरण है / नंदीफल विषले फल थे जो देखने में सुन्दर, मधुर और सुवासित. पर उनकी छाया भी बहत जहरीली थी। धन्य सार्थवाह ने अपने सभी व्यक्तियों को सूचित किया कि वे नंदीफल से बचें, पर जिन्होंने सूचना की अवहेलना की वे अपने जीवन से हाथ धो बैठे / धन्य सार्थवाह की तरह तीर्थकर हैं / विषय-भोग रूपी नंदीफल हैं जो तीर्थंकरों की आज्ञा की अवहेलना कर उन्हें ग्रहण करते हैं, वे जन्म-मरण को प्राप्त करते हैं किन्तु मूक्ति को वरण नहीं कर सकते हैं। प्रस्तुत अध्ययन में धन्य सार्थवाह अपने साथ उन सभी व्यक्तियों को ले जाते हैं जिनकी आर्थिक स्थिति नाजुक थी, जो स्वयं व्यापार आदि हेतु जा नहीं सकते थे। इसमें पारस्परिक सहयोग की भावना प्रमुख है, सार्थसमूह में अनेक मतों के माननेवाले परिव्राजक भी थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि उस समय विविध प्रकार के परिव्राजक अपने मत का प्रचार करने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान भी जाते थे। उनके नाम इस प्रकार हैं १.चरक जो जूथ बन्द घूमते हुए भिक्षा ग्रहण करते थे और खाते हुए चलते थे। व्याख्याप्रज्ञप्ति में चरक परिव्राजक धायी हई भिक्षा ग्रहण करते और लंगोटी लगाते थे / प्रज्ञापना में 188 चरक आदि परिव्राजकों को कपिल का पुत्र कहा है / प्राचारांग चणि में लिखा 86 है—सांख्य चरक के भक्त थे। वे परिव्राजक प्रातः काल उठकर स्कन्द प्रादि देवतामों के गृह का परिमार्जन करते, देवताओं पर उपलेपन करते और उनके सामने धूप आदि करते थे। बहदारण्यक उपनिषद् 160 में भी चरक का उल्लेख मिलता है। पं.बेचरदास जी दोशी ने चरक को त्रिदण्डी, कच्छतीधारी या कौपीनधारी तापस माना है। 2. चोरिक--पथ में पड़े हए वस्त्रों को धारण करने वाला या वस्त्रमय उपकरण रखने वाला। 3, चर्मखंडिक-चमड़े के वस्त्र और उपकरण रखने वाला। 4. भिच्छुड - (भिक्षोंड) केवल भिक्षा से ही जो जीवन निर्वाह करते हैं, किन्तु गोदुग्ध आदि रस ग्रहण नहीं करते / कितने ही स्थलों पर बुद्धानुयायी को भिण्ड कहा है। 5. पण्डुरंग-जो शरीर पर भस्म लगाते हैं। निशीथचूणि 161 में गोशालक के शिष्यों को पंडुरभिक्खु लिखा है। अनुयोगद्वारचूणि'६२ में पंडुरंग को ससरक्ख भिक्खुओं का पर्यायवाची माना है / शरीर पर श्वेत भस्म लगाने के कारण इन्हें पंडुरंग या पंडरभिक्ष कहा जाता था / उद्योतनसरि की दष्टि से गाय के दही, दूध, गोबर, घी आदि को मांस की भांति समझकर नहीं खाना पंडरभिक्षयों का धर्म था। 187, व्याख्याप्रज्ञप्ति १-२-पृ. 49 188. प्रज्ञापना 20. ब. 1214 189. (क) प्राचारांगचूणि ८-पृ. 265 (ख) प्रावश्यक मलयगिरि वृत्ति भा. 1, पृ. 87 190. बहद्. उप. 191. निशीयचूणि 13, 4420 (ख) 2, 1085 192. अनुयोगद्वारणि. पृ. 12 (1) जर्नल आफ द प्रोरियण्टल इन्सटीट्यूट पूना 26, नं. 2 प. 920 (2) कुवलयमाला 206/11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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