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________________ तेरहवां अध्ययन : दर्दुरज्ञात ] [ 353 जावज्जोवं जं पिय इमं सरोरं इट्ठ कंतं जाव' मा, फुसंतु एवं पिणं चरिमेहि ऊसासेहिं 'वोसिरामि' ति कटु / घोड़े के पैर से कुचले जाने के बाद वह मेंढक शक्तिहीन, बलहीन, वीर्य (उद्यम) हीन और पुरुषकार-पराक्रम से हीन हो गया / 'अब इस जीवन को धारण करना शक्य नहीं है।' ऐसा जानकर वह एक तरफ चला गया। वहां दोनों हाथ जोड़कर, तीन बार, मस्तक पर आवर्तन करके, मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार बोला-'अरुहंत (जिन्हें संसार में पूनः उत्पन्न नहीं होना है ऐसे) यावत निर्वाण को प्राप्त समस्त तीर्थंकर भगवन्तों को नमस्कार हो। मेरे धर्माचार्य यावत् मोक्ष-प्राप्ति के उन्मुख श्रमण भगवान् महावीर को नमस्कार हो / पहले भी मैंने श्रमण भगवान् महावीर के समीप स्थूल प्राणातिपात का प्रत्याख्यान किया था, यावत् (स्थूल मृषावाद, स्थूल अदत्तादान, स्थूल मैथुन) और स्थूल परिग्रह का प्रत्याख्यान किया था; तो अब भी मैं उन्हीं भगवान् के निकट समस्त प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूँ, यावत् समस्त परिग्रह का प्रत्याख्यान करता हूँ; जीवन पर्यन्त के लिए सर्व प्रशन, पान, खादिम और स्वादिम-चारों प्रकार के प्राहार का प्रत्याख्यान करता हूँ। यह जो मेरा इष्ट और कान्त शरीर है, जिसके विषय में चाहा था कि इसे रोग आदि स्पर्श न करें, इसे भी अन्तिम श्वासोच्छ्वास तक त्यागता हूँ।' इस प्रकार कह कर दर्दुर ने पूर्ण प्रत्याख्यान किया ! विवेचन--तिर्यंच गति में अधिक से अधिक पाँच गुणस्थान हो सकते हैं, अतएव देशविरति तो संभव है, किन्तु सर्व विरति-संयम की संभावना नहीं है। फिर नंद के जीव मंडूक ने सर्वविरति रूप प्रत्याख्यान कैसे कर लिया ? मूलपाठ में जिस प्रकार से इसका उल्लेख किया गया है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रागमकार को भी उसके प्रत्याख्यान में कोई अनौचित्य नहीं लगता। इस विषय में प्रसिद्ध टीकाकार अभयदेव सूरि ने अपनी टीका में स्पष्टीकरण किया है / वे लिखते हैं 'यद्यपि सव्वं पाणइवायं पच्चक्खामि' इत्यनेन सर्वग्रहणं तथापि तिरश्चां देशविरतिरेव / ' अर्थात् यद्यपि मेंढक ने 'सम्पूर्ण प्राणातिपात (आदि) का प्रत्याख्यान करता हूँ' ऐसा कहकर प्रत्याख्यान किया है तथापि तिर्यंचों में देश विरति हो सकती है--सर्वविरति नहीं। इस विषय में टीकाकार ने दो गाथाएं भी उद्धृत की हैं, जिनसे इस प्रश्न पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है / गाथाएं ये हैं--- तिरियाणं चारित्तं, निवारियं अह य तो पुणो तेसि / ___ सुब्वइ बहुयाणं पि हु, महव्वयारोहणं समए / / 1 / / न महव्वयसभावेवि, चरित्तपरिणामसंभवो तेसि / न बहुगुणाणंपि जो, केवलसंभूइपरिणामो / / 2 / / अर्थात् तिर्यचों में यद्यपि चारित्र (सर्वविरति) के होने का आगम में निषेध किया गया है, फिर भी बहुत-से तिर्यंचों ने महाव्रत ग्रहण किए ऐसा सुना जाता है-प्रागमों में ऐसा उल्लेख देखा 1. अ. १-सूत्र 156. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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