________________ तेरहवां अध्ययन : द१रज्ञात ] [ 341 नन्द का पुष्करिणी-निर्माण-मनोरथ १०-तए णं णंदे मणियारसेट्ठी अन्नया गिम्हकालसमयंसि जेवामूलंसि मासंसि अट्ठमभत्तं परिगेण्हइ, परिगेण्हित्ता पोसहसालाए जाव [पोसहिए बंभयारी उम्मुक्कमणि-सुवण्णे बवगयमालावष्णग-विलेवणे निक्खित्तसत्थ-मुसले एगे अबीए दम्भसंथारोवगए] विहरइ। तए णं णंदस्स अट्टमभक्तसि परिणममाणंसि तण्हाए छहाए य अभिभयस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झस्थिए जाव समुपज्जित्था-'धन्ना णं ते जाव [ईसरपभियओ संपुण्णा णं ते ईसरपभियओ कयत्था णं ते ईसरपभियओ कयण्णा णं ते ईसरपभियओ कयलक्खणा णं ते ईसरपभियओ कविभवा णं ते] ईसरपभियओ जेसि णं रायगिहस्स बहिया बहूओ वावीओ पोक्खरणीओ जाव [दोहियाओ गुजालियाओ सरपंतियाओ] सरसरपंतियओ जत्थ णं बहुजणो ण्हाइ य पियइ य पाणियं च संवहति / तं सेयं खलु ममं कल्लं पाउप्पभायाए सेणियं रायं आपुच्छित्ता रायगिहस्स नयरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए वेभारपव्वयस्स अदूरसामंते वत्थुपाढगरोइतंसि भूमिभागंसि नंदं पोखरिणि खणावेत्तए' त्ति कटु एवं संपेहेइ। तत्पश्चत नन्द मणिकार श्रेष्ठी ने किसी समय ग्रीष्मऋतु के अवसर पर, ज्येष्ठ मास में अष्टम भक्त (तेला) अंगीकार किया / अंगीकार करके वह पौषधशाला में [ब्रह्मचर्यपूर्वक, मणि-सुवर्ण के आभूषणों को त्याग करके, माला, वर्णक, विलेपन का तथा आरंभ-समारंभ का त्याग कर एकाकी, अद्वितीय, दर्भ के संस्तारक पर आसीन होकर विचरने लगा। तत्पश्चात् नन्द श्रेष्ठी का अष्टमभक्त जब परिणत हो रहा था-पूरा होने को था, तब प्यास और भूख से पीड़ित हुए उसके मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ-'वे यावत् ईश्वर सार्थवाह आदि धन्य हैं, वे ईश्वर आदि पुण्यशाली हैं, वे ईश्वर आदि कृतार्थ हैं, उन ईश्वर आदि ने पुण्य उपाजित किया है, वे ईश्वर आदि सुलक्षणसम्पन्न हैं, वे ईश्वर आदि वैभवशाली हैं, जिनकी राजगृह नगर से बाहर वहुत-सी वावड़ियाँ हैं, पुष्करिणियाँ हैं, यावत् [दीपिकाएँ--लम्बी वावड़ियाँ, गुजालिकाएँ-कमल युक्त वावड़ियाँ हैं, सरोवर हैं] सरोवरों की पंक्तियाँ हैं, जिनमें बहुतेरे लोग स्नान करते हैं, पानी पीते हैं और जिनसे पानी भर ले जाते हैं / तो मैं भी कल प्रभात होने पर श्रेणिक राजा की प्राज्ञा लेकर राजगृह नगर से बाहर, उत्तरपूर्व दिशा में, वैभारपर्वत से कुछ समीप में, वास्तुशास्त्र के पाठकों के पसंद किये हुए भूमिभाग में नंदा पुष्करिणी खुदवाऊँ, यह मेरे लिए उचित होगा।' नन्द श्रेष्ठी ने इस प्रकार विचार किया। राजाज्ञाप्राप्ति ११-एवं संपेहित्ता कल्लं पाउप्पभायाए जाव [रयणीए जाव उठ्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते] पोसह पारेइ, पारित्ता हाए कयबलिकम्मे मित्तणाइ जाव संपरिवुडे महत्थं जाव [महग्धं महरिहं रायारिहं] पाहुडं गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव पाहुडं उवट्ठवेइ, उवट्ठवित्ता एवं वयासो-'इच्छामि गं सामी ! तुहिं अब्भणुन्नाए समाणे रायगिहस्स बहिया जाव खणावेत्तए।' ___ 'अहासुहं देवाणुप्पिया।' इस प्रकार विचार करके, दूसरे दिन प्रभात होने पर [एवं सहस्ररश्मि दिवाकर के तेज से जाज्वल्यमान होने पर पौषध पारा / पौषध पार कर स्नान किया, बलिकर्म किया, फिर मित्र ज्ञाति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org