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________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट ] [ 123 धन्य के घर से भोजन ३३-तए णं सा भद्दा भारिया कल्लं जाव' जलते विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडेइ, उवक्खडित्ता भोयणपिडयं करेइ, करिता भायणाई पक्खिवइ, पक्खिवित्ता लंछियमुद्दियं करेइ / करित्ता एगं च सुरभिवारिपडिपुण्णं दगवारयं करेइ / करित्ता पंथयं दासचेडं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी—'गच्छ णं तुमं देवाणुप्पिया ! इमं विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं गहाय चारगसालाए धनस्स सत्यवाहस्स उवणेहि।' भद्रा भार्या ने अगले दिन यावत् सूर्य के जाज्वल्यमान होने पर विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन तैयार किया। भोजन तैयार करके भोजन रखने का पिटक (वाँस की छावड़ी) ठीक-ठाक किया और उसमें भोजन के पात्र रख दिये / फिर उस पिटक को लांछित और मुद्रित कर दिया, अर्थात् उस पर रेखा आदि के चिह्न बना दिये और मोहर लगा दी / सुगंधित जल से परिपूर्ण छोटा-सा घड़ा तैयार किया। फिर पंथक दास चेटक को आवाज दी और कहा-'हे देवानुप्रिय ! तू जा। यह विपुल प्रशन, पान, खादिम और स्वादिम लेकर कारागार में धन्य सार्थवाह के पास ले जा।' ३४-तए णं से पंथए भद्दाए सत्थवाहीए एवं वुत्ते समाणे हद्वतु8 तं भोयणपिडयं तं च सुरभि-वरवारिपडिपुण्णं दगवारयं गेण्हइ / गेण्हित्ता सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमइ / पडिनिक्खमित्ता रायगिहे नगरे मझमशेणं जेणेव चारगसाला, जेणेव धन्ने सत्यवाहे तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता भोयणपिडयं ठावेइ, ठावेत्ता उल्लंछइ, उल्लंछित्ता भायणाई गेण्हइ। गेण्हित्ता भायणाई धोवेइ, धोवित्ता हत्थसोयं दलयइ, दलइत्ता धण्णं सत्यवाहं तेणं वियुलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं परिवेसेइ। तत्पश्चात् पंथक ने भद्रा सार्थवाही के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट होकर उस भोजनपिटक को और उत्तम सुगंधित जल से परिपूर्ण घट को ग्रहण किया / ग्रहण करके अपने घर से निकला / निकल कर राजगृह के मध्य मार्ग में होकर जहाँ कारागार था और जहाँ धन्य सार्थवाह था, वहाँ पहुँचा / पहुँच कर भोजन का पिटक रख दिया। उसे लांछन और मुद्रा से रहित किया, अर्थात् उस पर बना हुग्रा चिह्न हटाया और मोहर हटा दी। फिर भोजन के पात्र लिए, उन्हें धोया और फिर हाथ धोने का पानी दिया / तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह को वह विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन परोसा। भोजन में से विभाग ३५-तए णं से विजए तक्करे धण्णं सस्थवाहं एवं वयासी-'तुमंणं देवाणुप्पिया ! मम एयाओ विपुलाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ संविभागं करेहि / ' तए णं से धण्णे सत्थवाहे विजयं तक्करं एवं वयासी–'अवियाई अहं विजया! एवं विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं कायाणं वा सुणगाणं वा दलएज्जा, उक्कुरुडियाए वा णं छड्डज्जा, नो चेव णं १.प्र.अ. सूत्र 28 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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