SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आठवां अध्ययन : मल्ली] [237 हुए लोगों की, अत्यन्त कठोर, स्नहहीन, अनिष्ट, उत्तापजनक, स्वरूप स ही अशुभ, अप्रिय तथा अकान्त-अनिष्ट स्वर वाली (अमनोहर) वाणी से तर्जना कर रहा था। ऐसा भयानक पिशाच उन लोगों को दिखाई दिया। विवेचन-उल्लिखित पाठ में तालपिशाच का दिल दहलाने वाला चित्र अंकित किया गया है / पाठ के प्रारम्भ में 'अरहण्णगवज्जा संजत्ताणावावाणियगा' पाठ पाया है / इसका प्राशय यह नहीं है कि अर्हन्नक के सिवाय अन्य वणिकों ने ही उस पिशाच को देखा। वस्तुतः ग्रहन्त्रक ने भी उसे देखा था, जैसा कि आगे के पाठों से स्पष्ट प्रतीत होता है / किन्तु 'अहन्नक के सिवाय' इस वाक्यांश का सम्बन्ध सूत्र संख्या ६४वें के साथ है। अर्थात् अर्हनक के सिवाय अन्य वणिकों ने उस भीषणतर संकट के उपस्थित होने पर क्या किया, यह बतलाने के लिए 'अरहण्णगवज्जा' पद का प्रयोग किया गया है / उस संकट के अवसर पर ग्रहनक ने क्या किया, यह सूत्र संख्या ६५वें में प्रदर्शित किया गया है। अन्य वणिकों से अर्हन्नक की भिन्नता दिखलाना सूत्रकार का अभीष्ट है। भिन्नता का कारण है-अर्हन्नक का श्रमणोपासक होना, जैसा कि सूत्र 53 में प्रकट किया गया है / सच्चे श्रावक में धार्मिक दृढ़ता किस सीमा तक होती है, यह घटना उसका स्पष्ट निदर्शन कराती है / ६४-तं तालपिसायरूवं एज्जमाणं पासंति, पासित्ता भीया संजायभया अन्नमन्नस्स कायं समतुरंगेमाणा बहूणं इंदाण य खंदाण य रुद्द-सिव-वेसमण-णागाणं भूयाण य जवखाण य अज्जकोट्टकिरियाण य बहूणि उवाइयसयाणि ओवाइयमाणा ओवाइयमाणा चिट्ठति / अहन्नक को छोड़कर शेष नौकावणिक तालपिशाच के रूप को नौका की ओर आता देख कर डर गये, अत्यन्त भयभीत हुए, एक दूसरे के शरीर से चिपट गये और बहुत से इन्द्रों की, स्कन्दों (कार्तिकेय) की तथा रुद्र, शिव, वैश्रमण और नागदेवों की, भूतों को, यक्षों की, दुर्गा की तथा कोट्टक्रिया (महिषवाहिनी दुर्गा) देवी की बहुत-बहुत सैकड़ों मनौतियाँ मनाने लगे। ६५-तए णं से अरहन्नए समणोवासए तं दिव्वं पिसायरूवं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता अभीए अतत्थे अचलिए असंभंते अणाउले अणुविग्गे अभिष्णमुहराग-णयणवण्णे अदीणविमणमाणसे पोयवहणस्स एगदेसंमि वत्थतेणं भूमि पमज्जइ, पमज्जित्ता ठाणं ठाइ, ठाइत्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ट एवं वयासी ___ नमोऽथु णं अरहताणं भगवंताणं जाव' ठाणं संपत्ताणं, जइ णं अहं एत्तो उवसग्गाओ मुचामि तो मे कप्पइ पारित्तए, अह णं एत्तो उवसग्गाओ ण मुचामि तो मे तहा पच्चक्खाएयवे' त्ति कटु सागारं भत्तं पच्चक्खाइ / अर्हनक श्रमणोपासक ने उस दिव्य पिशाचरूप को आता देखा / उसे देख कर वह तनिक भी भयभीत नहीं हुआ, त्रास को प्राप्त नहीं हुग्रा, चलायमान नहीं हुअा, संभ्रान्त नहीं हुआ, व्याकुल नहीं हुप्रा. उद्विग्न नहीं हुआ। उसके मुख का राग और नेत्रों का वर्ण नहीं बदला / उसके मन में दीनता या खिन्नता उत्पन्न नहीं हुई / उसने पोतवहन के एक भाग में जाकर वस्त्र के छोर से भूमि का प्रमार्जन किया। प्रमार्जन करके उस स्थान पर बैठ गया और दोनों हाथ जोड़ कर इस प्रकार बोला---' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy