________________ तृतीय अध्ययन : अंडक ] [145 उपसंहार २६–एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथो:वा पव्वइए समाणे पंचसु महव्वएसु छसु जीवनिकाएसु निग्गंथे पावयणे निस्संकिए निक्कंखिए निम्विइगिच्छे से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं समणीणं जाव' वीइवइस्सइ / एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं णायाणं तच्चस्स अज्झयणस्स अयमठे पन्नत्ते त्ति बेमि / / हे आयुष्मान् श्रमणो ! इसी प्रकार हमारा जो साधु या साध्वी दीक्षित होकर पाँच महाव्रतों में, षट् जीवनिकाय में तथा निर्ग्रन्थ-प्रवचन में शंका से रहित, कांक्षा से रहित तथा विचिकित्सा से रहित होता है, वह इसी भव में बहुत से श्रमणों एवं श्रमणियों में मान-सम्मान प्राप्त करके यावत् संसार रूप अटवी को पार करेगा। हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के तृतीय अध्ययन का अर्थ फरमाया है / / / तृतीय अध्ययन समाप्त // 1. द्वि. प्र. सूत्र 53. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org