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________________ [ ज्ञाताधर्मकथा पाँचवें मास में द्वादशम- द्वादशम (पंचोले-पंचोले) का निरन्तर तप करने लगे। दिन में उकडू अासन से स्थिर होकर, सूर्य के सन्मुख आतापनाभूमि में प्रातापना लेते और रात्रि में प्रावरणरहित होकर वीरासन से रहते थे। इसी प्रकार के पालापक के साथ छठे मास में छह-छह उपवास का, सातवें मास में सात-सात उपवास का, आठवें मास में आठ-आठ उपवास का, नौवें मास में नौ-नौ मास का, दसवें मास में दस-दस उपवास का, ग्यारहवें मास में ग्यारह-ग्यारह उपवास का, बारहवें मास में बारह-बारह उपवास का, तेरहवें मास में तेरह-तेरह उपवास का, चौदहवें मास में चौदह-चौदह उपवास का, पन्द्रहवें मास में पन्द्रह-पन्द्रह उपवास का और सोलहवें मास में सोलह-सोलह उपवास का निरन्तर तप करते हुए विचरने लगे। दिन में उकडू आसन से सूर्य के सन्मुख आतापनाभूमि में प्रातापना लेते थे और रात्रि में प्रावरणरहित होकर वीरासन से स्थित रहते थे। विवेचन-दोनों पैर पृथ्वी पर टेक कर सिंहासन या कुर्सी पर बैठ जाये और बाद में सिंहासन या कुर्सी हटा ली जाये तो जो आसन बनता है वह वीरासन कहलाता है / २००-तए णं से मेहे अणगारे गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्मं अहासुत्तं जाव' सम्म काएण फासेइ, पालेइ, सोहेइ, तोरेइ, किट्टेइ, अहासुत्तं अहाकप्पं जाव किट्टेत्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमंसइ, बंदित्ता नमंसित्ता बहूहि छट्ठट्ठमदसमदुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। इस प्रकार मेघ अनगार ने गुणरत्नसंवत्सर नामक तपःकर्म का सूत्र के अनुसार, कल्प के अनुसार तथा मार्ग के अनुसार सम्यक् प्रकार से काय द्वारा स्पर्श किया, पालन किया, शोधित या शोभित किया तथा कीर्तित किया / सूत्र के अनुसार और कल्प के अनुसार यावत् कीर्तन करके श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन किया, नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके बहुत से षष्ठभक्त, अष्टमभक्त, दशमभक्त, द्वादशभक्त आदि तथा अर्धमासखमण एवं मासखमण आदि विचित्र प्रकार के तपश्चरण करके प्रात्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। २०१--तए णं से मेहे अणगारे तेणं उरालेणं विपूलेणं सस्सिरीएणं पयत्तेणं पग्गहिएणं कल्लाणेणं सिवेणं धन्नेणं मंगल्लेणं उदग्गेणं उदारएणं उत्तमेणं महाणुभावेणं तवोकम्मेणं सुक्के भक्खे लुक्खे निम्मंसे निस्सोणिए किडिकिडियाभूए अट्ठिचम्मावणद्धे किसे धमणिसंतए जाए यावि होत्या। जीवंजीवेणं गच्छइ, जीवंजीवेणं चिट्ठइ, भासं भासित्ता गिलायइ, भासं भासमाणे गिलायइ, भासं भासिस्सामि त्ति गिलायइ। तत्पश्चात मेघ अनगार उस उराल-प्रधान, विपूल-दीर्घकालीन होने के कारण विस्तीर्ण, सश्रीक-शोभासम्पन्न, गुरु द्वारा प्रदत्त अथवा प्रयत्नसाध्य, बहुमानपूर्वक गहीत, कल्याणकारीनोरोगताजनक, शिव-मुक्ति के कारण, धन्य-धन प्रदान करने वाले, मांगल्य-पापविनाशक, उदग्र-तीव, उदार-निष्काम होने के कारण औदार्य वाले, उत्तम-अज्ञानान्धकार से रहित और महान् प्रभाव वाले 1. प्र. प्र. सूत्र 196 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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