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________________ 226 ] [ ज्ञाताधर्मकथा असणं पाणं खाइमं साइमं आहारेइ, तओ मणुन्नाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ कल्लाकल्लि एगमेगं पिंडं गहाय तीसे कणगमईए मत्थयच्छिड्डाए जाव पडिमाए मत्थयंसि पविखवमाणी विहरइ / / तत्पश्चात् उस मल्ली कुमारी ने मणिपीठिका के ऊपर अपनी जैसी, अपनी जैसी त्वचावाली, अपनी सरीखी उम्र की दिखाई देने वाली, समान लावण्य, यौवन और गुणों से युक्त एक सुवर्ण की प्रतिमा बनवाई / उस प्रतिमा के मस्तक पर छिद्र था और उस पर कमल का ढक्कन था / इस प्रकार की प्रतिमा बनवा कर जो विपल अशन. पान.खाद्य और स्वाद्य वह खाती थी. पान, खाद्य और स्वाद्य में से प्रतिदिन एक-एक पिण्ड (कवल) लेकर उस स्वर्णमयी, मस्तक में छेद वाली यावत् प्रतिमा में, मस्तक में से डालती रहती थी। ३६--तए णं तीसे कणगमईए जाव मत्थयछिड़ाए पडिमाए एगमेगंसि पिडे पक्खिप्पमाणे पक्खिप्पमाणे पउमुप्पलपिहाणं पिहेइ / तओ गंधे पाउन्भवइ, से जहानामए अहिमडेइ वा जाव [गोमडे इ वा, सुणहमडे इ वा, मज्जारमडे इ वा, मणुस्समडे इ वा, महिसमडे इ वा, मूसगमडे इ वा, आसमडे इ वा, हत्थिमडे इ वा, सोहमडे इ बा, वग्घमडे इ बा, विगमडे इ वा, दीविगमडे इ वा] मयकुहिय-विण-दुरभिवण्ण-दुब्भिगंधे किमिजालाउलसंसत्ते असुइ-विलोण-विगय-वीभच्छदरिसणिज्जे भवेयारूवे सिया? नो इणठे समढे / एत्तो अणिटुतराए चेव अकंततराए चेव अप्पियतराए चेव अमणुण्णतराए चेव अमणामतराए। तत्पश्चात् उस स्वर्णमयी यावत् मस्तक में छिद्र वाली प्रतिमा में एक-एक पिण्ड डाल-डाल कर कमल का ढक्कन ढंक देती थी / इससे उसमें ऐसो दुर्गन्ध उत्पन्न होती थी जैसे सर्प के मृत कलेवर की हो, यावत् [गाय के मृत कलेवर, कुत्ते के मृत कलेवर, मार्जार (विलाव) के मृत कलेवर, मनुष्य के मृत कलेवर, महिष के मृत कलेवर, इसी प्रकार मूषक (चूहे), अश्व, हस्ती, सिंह, व्याघ्र, वृक (भेड़िया)या द्वीपिका के मृत कलेवर की हो] और वह भी मरने के पश्चात् सड़े-गले, दुर्वर्ण एवं दुर्गन्ध वाले, कीड़ों के समूह जिसमें बिलबिला रहे हों, जो अशुचिमय, विकृत तथा देखने में वीभत्स हो / क्या उस प्रतिमा में से ऐसी.-मृत कलेवर को गन्ध के समान दुर्गन्ध निकलती थी? नहीं, यह अर्थ समर्थ नहीं, अर्थात् वह दुर्गन्ध ऐसी नहीं थी वरन् उससे भी अधिक अनिष्ट, उससे भी अधिक अकमनीय, उससे भी अधिक अप्रिय, उसमे भी अधिक अमनोरम और उसमे भी अधिक अनिष्ट गन्ध उत्पन्न होती थी। राजा प्रतिबुद्धि ३७-तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसले नाम जणवए होत्था। तत्थ णं सागेए नाम नयरे होत्था / तस्स णं उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए एत्थ णं महं एगे पागधरए होत्था दिव्वे सच्चे सच्चोवाए संनिहियपाडिहेरे। उस काल और उस समय में कौशल नामक देश था। उसमें साकेत नामक नगर था। उस नगर से उत्तरपूर्व (ईशान) दिशा में एक नागगृह (नागदेव की प्रतिमा से युक्त चैत्य) था / वह प्रधान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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