________________ 106] [ ज्ञाताधर्मकथा तथ्य से अनजान भद्रा ने कहा- मुझे प्रसन्नता, आनन्द और सन्तोष कैसे हो सकता है जब कि आपने मेरे लाडले बेटे के हत्यारे वैरी विजय चोर को प्राहार-पानी में से हिस्सा दिया है ? धन्य सार्थवाह भद्रा के कोप का कारण समझ गया। समग्र परिस्थिति समझाते हुए उसने स्पष्टीकरण किया--- देवानुप्रिये ! मैंने उस वैरी को हिस्सा तो दिया है मगर धर्म समझ कर, कर्तव्य समझ कर, न्याय अथवा प्रत्युपकार समझ कर नहीं दिया, केवल मल-मूत्र की बाधानिवृत्ति में सहायक बने रहने के उद्देश्य से ही दिया है। यह स्पष्टीकरण सुनकर भद्रा को सन्तोष हुा / वह प्रसन्न हुई। विजय चोर अपने घोर पापों का फल भुगतने के लिए नरक का अतिथि बना / धन्य सार्थवाह कुछ समय पश्चात् धर्मघोष स्थविर से मुनिदीक्षा अंगीकार करके अन्त में स्वर्ग-वासी हुआ / तात्पर्य यह है कि जैसे धन्य सार्थवाह ने ममता या प्रीति के कारण विजय चोर को ग्राहार / नहीं दिया किन्तु शारीरिक बाधा की निवत्ति के लिए दिया, उसी प्रकार निर्ग्रन्थ मुनि शरीर के प्रति प्रासक्ति के कारण आहार-पानी से उसका पोषण नहीं करते, मात्र शरीर की सहायता से सम्यग्ज्ञान दर्शन और चारित्र को रक्षा एवं वृद्धि के उद्देश्य से ही उसका पालन-पोषण करते हैं। विस्तार के लिए देखिये पूरा अध्ययन / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org