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________________ [ज्ञाताधर्मकथा तए णं से सेणिए राया तासि अंगपडियारियाणं अंतिए एयमहूँ सोच्चा णिसम्म हदुतु४० ताओ अंगपडियारियाओ महुरेहि वयहिं विपुलेण य पुष्फगंधमल्लालंकारेणं सक्कारेति, सम्माति, सक्कारिता सम्माणित्ता मत्थयधोयाओ करेति, पुत्ताणुपुत्तियं वित्ति कप्पेति, कपित्ता पडिविसज्जेति। हे देवानुप्रिय ! धारिणी देवी ने नौ मास पूर्ण होने पर यावत् पुत्र का प्रसव किया है। सो हम देवानुप्रिय को प्रिय (समाचार) निवेदन करती हैं / आपको प्रिय हो ! तत्पश्चात् श्रेणिक राजा उन दासियों के पास से यह अर्थ सुनकर और हृदय में धारण करके हृष्ट-तुष्ट हुआ / उसने उन दासियों का मधुर वचनों से तथा विपुल पुष्पों, गंधों, मालाओं और आभूषणों से सत्कार-सन्मान किया। सत्कार-सन्मान करके उन्हें मस्तकधौत किया अर्थात् दासीपन से मुक्त कर दिया। उन्हें ऐसी आजीविका कर दी कि उनके पौत्र आदि तक चलती रहे। इस प्रकार आजीविका करके विपुल द्रव्य देकर विदा किया / विवेचन-प्राचीन काल में इस देश में दासप्रथा और दासीप्रथा प्रचलित थी। दास-दासियों की स्थिति लगभग पशुओं जैसी थी। उनका क्रय-विक्रय होता था / बाजार लगते थे। जीवन-पर्यन्त उन्हें गुलाम होकर रहना पड़ता था। उनका कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं था। कोई विशिष्ट हर्ष का प्रसंग हो और स्वामी प्रसन्न हो जाये तभी दासता अथवा दासीपन से उनको मुक्ति मिलती थी / राजा श्रेणिक का प्रसन्न होकर दासियों को दासीपन से मुक्त कर देना इसी प्रथा का सूचक है। जन्मोत्सव ९०-तए णं से सेणिए राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेति / सद्दावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्यिया ! रायगिहं नगरं आस त्ति जाव (सम्मज्जिओवलितं सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चरचउम्मुह-महापह-पहेसु आसित्त-सित्त-सुइ-सम्मटु-रत्यंतरावण-वीहियं मंचाइमंचकलियं गाणाविहरागअसिय-ज्य-पडागाइपडाग-मंडियं लाउल्लोइयमहियं गोसीस-सरस-रत्तचंदण-दहर-दिग्णपंचगलितलं उचियचंदणकलसं चंदणघड-सुकय-तोरण-पडिदुवारदेसभायं आसित्तो-सित्तविउल-बट्ट-वग्घारिय-मल्लदाम-कलावं पंचवण्ण-सरस-सुरभिमुक्क-पुष्फपुजोवयार-कलियं कालागुरु-पवर-कुदुरुक्कतुरुक्क-धूव-डज्झंत-मघमघेत-गंधुद्ध याभिरामं सुगंधवर-गंधियं गंधवट्टिभूयं नड-नटग-जल्ल-मल्ल-मुट्टियवेलंवग-कहकहग-पवग-लासग-आइक्खग-लंख-मंख-तूणइल्ल-तुबवीणिय-अणेगतालायर)-परिगीयं करेह कारवेह य / करिता चारगपरिसोहणं करेह / करित्ता माणुम्माण-बद्धणं करेह / करित्ता एयमाणत्तियं पच्चपिणह / जाव पच्चप्पिणंति / तत्पश्चात् श्रेणिक राजा कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाता है। बुलाकर इस प्रकार प्रादेश देता है—देवानुप्रियो ! शीघ्र ही राजगृह नगर में सुगन्धित जल छिड़को, यावत् उसका सम्मार्जन एवं लेपन करो, शृङ्गाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, चतुर्मुख और राजमार्गों में सिंचन करो, उन्हें शुचि करो, रास्ते, बाजार, वीथियों को साफ करो, उन पर मंच और मंचों पर मंच बनायो, तरह-तरह की ऊँची ध्वजाओं, पताकाओं और पताकाओं पर पताकाओं से शोभित करो, लिपा-पुता करो, गोशीर्ष चन्दन तथा सरस रक्तचन्दन के पाँचों उंगलियों वाले हाथे लगाओ, चन्दन-चचित कलशों से उपचित करो, स्थान-स्थान पर. द्वारों पर चन्दन-घटों के तोरणों का निर्माण करायो, विपूल गोलाकार मालाएं लटकानो, पांचों रंगों के ताजा और सुगंधित फूलों को बिखेरो, काले अगर, श्रेष्ठ कुन्दरुक, लोभान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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